आम का वह पौधा,
जो तुमने कभी रोपा था,
अब पेड़ बन गया है,
महकते बौर लगते हैं उसमें,
खट्टी कैरियाँ और मीठे फल भी।
उसके हरे-हरे पत्ते
हवाओं में मचलते हैं,
उसकी टहनियों पर बैठकर
पंछी चहचहाते हैं।
तुम भी चले आओ इस साल,
देख लो अपना लगाया पौधा,
नहीं बनाना घोंसला, तो न सही,
थोड़ी देर शाख पर बैठ जाना,
फिर चाहो, तो उड़ जाना।
वाह
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 28 नवंबर 2024 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
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बहुत सुन्दर सृजन ।
जवाब देंहटाएंवाह! हमेशा की सुंदर, सहज और हृदयग्राही सृजन! बधाई और शुभकामनाएं ओंकार जी 🙏
जवाब देंहटाएंबहुत आत्मीय ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ! इतनी आज़ादी तो देनी ही चाहिए
जवाब देंहटाएंएक ऐसी टीस, जो बुझ नहीं सकती। कविता का शीर्षक बहुत सार्थक लगा।
जवाब देंहटाएंआज भी याद है आम का वह पेड़!
जवाब देंहटाएंकुछ पल हम बैठते थे हर दिन सबेर
दिदी झाँक जाती थी युँ ही कभी कभार
की दोनों भाई बहन पढ़ाई मे है या बेकार - कुमलु