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मंगलवार, 26 नवंबर 2024

790. परदेसी से

 


आम का वह पौधा,

जो तुमने कभी रोपा था,

अब पेड़ बन गया है,

महकते बौर लगते हैं उसमें,

खट्टी कैरियाँ और मीठे फल भी। 


उसके हरे-हरे पत्ते 

हवाओं में मचलते हैं,

उसकी टहनियों पर बैठकर 

पंछी चहचहाते हैं। 


तुम भी चले आओ इस साल, 

देख लो अपना लगाया पौधा,

नहीं बनाना घोंसला, तो न सही,

थोड़ी देर शाख पर बैठ जाना,

फिर चाहो, तो उड़ जाना। 



8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 28 नवंबर 2024 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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  2. वाह! हमेशा की सुंदर, सहज और हृदयग्राही सृजन! बधाई और शुभकामनाएं ओंकार जी 🙏

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  3. बहुत सुंदर ! इतनी आज़ादी तो देनी ही चाहिए

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  4. एक ऐसी टीस, जो बुझ नहीं सकती। कविता का शीर्षक बहुत सार्थक लगा।

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  5. आज भी याद है आम का वह पेड़!
    कुछ पल हम बैठते थे हर दिन सबेर
    दिदी झाँक जाती थी युँ ही कभी कभार
    की दोनों भाई बहन पढ़ाई मे है या बेकार - कुमलु

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