ज़िन्दगी बीत गई तुम्हें ढूंढ़ते,
पर तुम मिली ही नहीं,
अब तो बता दो अपना पता,
अब वक़्त ज़रा कम है.
***
मैंने दुखी लोगों से पूछा,
ख़ुशी कहाँ है?
वे बोले,पता होता,
तो दुखी क्यों होते?
मैंने उनसे भी पूछा
जो ख़ुश रहते हैं,
वे बोले, यह क्या सवाल है?
ख़ुशी कहाँ नहीं है?
***
मैं तुम्हें खोजता रहा बाहर,
पर तुम तो अन्दर ही थी,
कभी तुमने आवाज़ नहीं दी,
कभी मैंने अन्दर नहीं झाँका.
बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंवाह 🌻
जवाब देंहटाएंपहले और अंतिम पदों में गजब का विरोधाभास है
जवाब देंहटाएंसच तो है व्यक्ति अपने द्वारा बनाये हुए वातावरण से बाहर नहीं झांक पाता।
दुखी है तो दुखी ही रहेगा।
शानदार अभिव्यक्ति।
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आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 21 सितंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (22-9 -2020 ) को "काँधे पर हल धरे किसान"(चर्चा अंक-3832) पर भी होगी,आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
सादगी भरी सुन्दर अभिव्यक्ति - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भाव लिए रचना |
जवाब देंहटाएंसच खुश होना और दुःखी रहना बहुत कुछ अपने ऊपर निर्भर करता है
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना
वाह। बहुत सुन्दर।
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