बहुत हो गया अब,
छोड़ो कॉपी-किताब,
फेंक दो चाक-पेंसिल,
बंद करो भागना अब
घंटी की आवाज़ पर.
आओ, ज़रा खुले में चलें,
तितलियों के पीछे दौड़ें,
बंद आँखों पर महसूस करें,
बारिश की गिरती बूँदें.
देखो, सूर्यास्त के समय
कैसे रंग बदलता है आकाश,
कैसे मौसम बदलते ही
रूप बदलता है पेड़.
चलो, नदी के किनारे चलें,
संगीत सुनें बहते पानी का,
कंकड़ फेंक कर देखें,
कैसे उछलता है पानी.
चलो, ज़ोर से दौड़ें
ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर,
छाले पड़ जायँ पाँवों में,
छिल जायँ घुटने.
उतार फेंकें बोझ,
आज खुलकर हँस लें,
बर्बाद कर दिया हमने
बहुत सारा वक़्त,
अब सीखने का समय है.
वाह बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंwah! wah! Wah! ekdum sateek aur rochak!
जवाब देंहटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार 9 नवंबर 2020 को 'उड़ीं किसी की धज्जियाँ बढ़ी किसी की शान' (चर्चा अंक- 3880) पर भी होगी।--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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#रवीन्द्र_सिंह_यादव
बेहतरीन सृजन.. खुली स्वच्छ हवा सी खुशनुमा भावाभिव्यक्ति.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना !!!
जवाब देंहटाएंसब बंधनों को दरकिनार कर मन की उन्मुक्त उड़ान को प्रेरित करती रचना ओंकार जी. बहुत अच्छा लिख रहे हैं आप🙏🙏
जवाब देंहटाएंसुन्दर बाल सृजन।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंसही सोच ..
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