नए घर में आई थी वह औरत, बड़ा आरामदेह घर था वह, हर कमरा हवादार था उसका, धूप आती थी उसकी बालकनी में. औरत ने सुन रखा था यह सब, महसूस नहीं किया था कभी, क्योंकि घर के किचन के बाहर उस औरत का कोई घर नहीं था.
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (08-07-2020) को "सयानी सियासत" (चर्चा अंक-3756) पर भी होगी। -- हार्दिक शुभकामनाओं के साथ। सादर...! डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' --
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 07 जुलाई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (08-07-2020) को "सयानी सियासत" (चर्चा अंक-3756) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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उम्मीद है,
जवाब देंहटाएंजल्दी ही वह औरत
ताज़ी हवा को
महसूस करने का
रास्ता ढूंढ लेगी ।
हवादार खिड़कियां
खुली रखेगी ।
और जिनके लिए
दिन रात एक कर
रसोई बनाती है,
वो भी एक दिन
उसे रास्ता देंगे ।
खिड़की दरवाज़े
खुले रहने देंगे ।
क्या बात ... घर के किचन से बाहर उसने देखा कहाँ था ...
जवाब देंहटाएंबहुत गहरी बात ...
बहुत सुंदर और दर्द भी!
जवाब देंहटाएंक्योंकि घर के किचन के बाहर
जवाब देंहटाएंउस औरत का कोई घर नहीं था. ये बात तो नश्तर सरीखी लिख आपने कविवर ! निशब्द हूँ !