कौन थे वे,
जो सिर पर घर लादे
चले जा रहे थे
अपने घरों की ओर?
छालों भरे पांव,
भूख से अकड़े पेट -
न जाने कहाँ से चलकर
आए थे वे,
न जाने कहाँ तक चलकर
जाना था उन्हें?
कौन थे वे,
जिनकी उंगलियाँ थामे
चले जा रहे थे बच्चे,
जिनकी औरतें
भारी पाँवों के साथ
बढ़ी जा रही थीं
मंज़िल की ओर.
कोरोना के डर से बेख़बर,
हिदायतों को दरकिनार कर
लाठी,डंडे,गालियां खाकर,
कभी खुलकर,कभी छिपकर
बढ़े चले जा रहे थे वे.
यक़ीन नहीं होता था उन्हें देखकर
कि मौत से सब डरते हैं.
जो सिर पर घर लादे
चले जा रहे थे
अपने घरों की ओर?
छालों भरे पांव,
भूख से अकड़े पेट -
न जाने कहाँ से चलकर
आए थे वे,
न जाने कहाँ तक चलकर
जाना था उन्हें?
कौन थे वे,
जिनकी उंगलियाँ थामे
चले जा रहे थे बच्चे,
जिनकी औरतें
भारी पाँवों के साथ
बढ़ी जा रही थीं
मंज़िल की ओर.
कोरोना के डर से बेख़बर,
हिदायतों को दरकिनार कर
लाठी,डंडे,गालियां खाकर,
कभी खुलकर,कभी छिपकर
बढ़े चले जा रहे थे वे.
यक़ीन नहीं होता था उन्हें देखकर
कि मौत से सब डरते हैं.
सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (22-07-2020) को "सावन का उपहार" (चर्चा अंक-3770) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
--
हृदयस्पर्शी सृजन सर ।
जवाब देंहटाएंयथार्थ पर सटीक दृश्य उत्पन्न करता सार्थक लेखन।
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