किसी रोज़ समय मिले, तो अपने अन्दर भी झांक लो, बहुत कुछ दिखेगा वहां, जो तुम्हें पता ही नहीं था कि तुम्हारे अन्दर छिपा है. कितनी अजीब बात है कि हम दूर-दूर जाते हैं, देख लेते हैं सब कुछ, पर उसे नहीं देख पाते, जो हमारे सबसे क़रीब है.
ये तो गूढ़़रहस्य ही बना रहा है आज तक कि हम उसे ही नहीं देख पाते, जो हमारे सबसे क़रीब है तभी तो कस्तूरी मृग की सी स्थिति में जीते रहते हैं। बहुत खूब लिखा
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 26 जुलाई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसत्य लिखा है ... मन के करीब को तो हम कुछ समझते ही नहीं हैं न ...
जवाब देंहटाएंप्रेरक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसार्थक सृजन
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति ...स्वयं का ज्ञान ही पूर्णता दर्शाता है।
जवाब देंहटाएंवाह ! बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर और सार्थक रचना ।
जवाब देंहटाएंदिल को छू लेने वाले भावों से परिपूर्ण छोटी लेकिन गहरे अर्थों वाली कविता । हार्दिक बधाई ।
जवाब देंहटाएंये तो गूढ़़रहस्य ही बना रहा है आज तक कि हम उसे ही नहीं देख पाते,
जवाब देंहटाएंजो हमारे सबसे क़रीब है तभी तो कस्तूरी मृग की सी स्थिति में जीते रहते हैं। बहुत खूब लिखा