एक मंज़िल है,
जिसकी तरफ़
न जाने कब से
चला जा रहा हूँ मैं,
पर मंज़िल है कि
बहुत दूर लगती है.
मुझे नहीं लगता
कि मैं मंज़िल तक पहुंचूंगा,
पर कम-से-कम
जहाँ से चला था,
वहां से तो आगे निकलूँगा
मंज़िल न मिले तो न सही,
आगे बढ़ते रहना
और चलते रहना ही होगी
मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि.
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 12 जुलाई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंचरैवेति की सीख देती सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार (06-07-2020) को 'मंज़िल न मिले तो न सही (चर्चा अंक 3761) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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-रवीन्द्र सिंह यादव
आपकी रचना की पंक्ति-
"मंज़िल न मिले तो न सही,"
हमारी प्रस्तुति का शीर्षक होगी।
मंज़िल न मिले तो न सही,
जवाब देंहटाएंआगे बढ़ते रहना
और चलते रहना ही होगी
मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि.
प्रेरणादायक सुन्दर संदेश ।
बहुत सुन्दर रचना ओंकार जी ! चलते रहना ही हमारी नियति है ! मंजिल भी एक दिन ज़रूर मिल जायेगी !
जवाब देंहटाएंमंज़िल न मिले तो न सही,
जवाब देंहटाएंआगे बढ़ते रहना
और चलते रहना ही होगी
मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि.
बहुत सुंदर ओंकार जी | इसे उपलब्धि मानकर चलना ही इंसान की सबसे बड़ी विजय है | सादर
सकारत्मक ऊर्जा देता संदेश
जवाब देंहटाएंमंज़िल न मिले तो न सही,
जवाब देंहटाएंआगे बढ़ते रहना
और चलते रहना ही होगी
मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि.यथार्थ कहा आदरणीय सर यही उपलब्धि है.बेहतरीन अभिव्यक्ति .
सादर
यही जीवन भी है ...
जवाब देंहटाएंआगे और सिर्फ़ आगे बढ़ते रहना किसी उपलब्धि से कम नहीं ...
सरल,सहज और सारगर्भित अभिव्यक्ति हर।
जवाब देंहटाएंसादर।