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शनिवार, 27 फ़रवरी 2021

५३९.यात्रा




धड़धड़ाती हुई ट्रेन 

गुज़रती है पुल के ऊपर से,

नीचे बह रही है विशाल नदी,

उसकी लहरें उछल-उछलकर 

लील जाना चाहती है सब कुछ.


आँखें बंद कर लेता हूँ मैं,

विनती करता हूँ पटरियों से,

संभाले रखना ट्रेन को,

प्रार्थना करता हूँ ट्रेन से,

रुकना नहीं, सर्र से निकल जाना.


भूल जाता हूँ मैं 

कि यह आख़िरी नदी नहीं है,

आगे और भी नदियाँ हैं,

जिन्हें मुझे पार करना है. 

10 टिप्‍पणियां:

  1. जीवन में न जाने कितनी नदियाँ पर करनी पड़ती हैं ।कभी हौसले से कभी प्रार्थना से । गहन अभिव्यक्ति ।

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  2. जीवंत शब्द चित्र के साथ गहन चितन लिए सुन्दर सृजन ।

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  3. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार ( 01 -03 -2021 ) को 'मौसम ने ली है अँगड़ाई' (चर्चा अंक-3992) पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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  4. बहुत सुंदर सन्देश देती सहज रचना , अभी कई नदियां पार करना होगा

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