कौन कहता है
कि आत्मा नहीं मरती,
मैं रोज़ देखता हूँ,
शरीर को ज़िन्दा रहते
और आत्मा को मरते.
मैं रोज़ देखता हूँ
कि शरीर मज़बूत होते जाते हैं
और आत्माएं कमज़ोर,
आख़िर में शरीर बच जाता है
और आत्मा मर जाती है.
एक दिन शरीर भी मर जाता है,
उसे जला दिया जाता है
या दफना दिया जाता है,
अंतिम संस्कार शरीर का होता है,
आत्मा का हो ही नहीं सकता,
वह तो पहले ही मर चुकी होती है.
आपकी यह बात इस स्वार्थी संसार के अधिकांश लोगों पर लागू है ओंकार जी । साहसिक अभिव्यक्ति हेतु अभिनंदन आपका ।
जवाब देंहटाएंरोज़ देखता हूँ
जवाब देंहटाएंकि शरीर मज़बूत होते जाते हैं
और आत्माएं कमज़ोर,
आख़िर में शरीर बच जाता है
और आत्मा मर जाती है.
कितने कम शब्दों में इस कटु सत्य को उजागर कर दिया है ।
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 26 फरवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंवाह !! निशब्द करती सशक्त रचना ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर और सारगर्भित।
जवाब देंहटाएंगजब तंज है सटीक ।
जवाब देंहटाएंहां आत्मा मरती है।
सुंदर सृजन।
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२७-०२-२०२१) को 'नर हो न निराश करो मन को' (चर्चा अंक- ३९९०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
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अनीता सैनी
बेहद शानदार रचना
जवाब देंहटाएंवाह
निशब्द कर गई आपकी यह लाजवाब कृति..
जवाब देंहटाएंअब ऐसा ही होने लगा है ,यथार्थ को दर्शाती हुई बेहतरीन रचना, सादर नमन,
जवाब देंहटाएंसटीक और सुन्दर ।
जवाब देंहटाएंमैं रोज़ देखता हूँ
जवाब देंहटाएंकि शरीर मज़बूत होते जाते हैं
और आत्माएं कमज़ोर,
ये आज का सच है !सत्य वचन ओंकार जी,सादर नमन आपको
बहुत खूब
जवाब देंहटाएंआख़िर में शरीर बच जाता है
जवाब देंहटाएंऔर आत्मा मर जाती है.!!!!!
! निशब्द हूँ ओंकार जी। ज्यादा तर शरीर धारी इस अनमोल आत्म स्वरूप से वंचित ही होते हैं। 🙏🙏
बहुत सुन्दर सृजन।
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