धड़धड़ाती हुई ट्रेन
गुज़रती है पुल के ऊपर से,
नीचे बह रही है विशाल नदी,
उसकी लहरें उछल-उछलकर
लील जाना चाहती है सब कुछ.
आँखें बंद कर लेता हूँ मैं,
विनती करता हूँ पटरियों से,
संभाले रखना ट्रेन को,
प्रार्थना करता हूँ ट्रेन से,
रुकना नहीं, सर्र से निकल जाना.
भूल जाता हूँ मैं
कि यह आख़िरी नदी नहीं है,
आगे और भी नदियाँ हैं,
जिन्हें मुझे पार करना है.
जीवन में न जाने कितनी नदियाँ पर करनी पड़ती हैं ।कभी हौसले से कभी प्रार्थना से । गहन अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंजीवंत शब्द चित्र के साथ गहन चितन लिए सुन्दर सृजन ।
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार ( 01 -03 -2021 ) को 'मौसम ने ली है अँगड़ाई' (चर्चा अंक-3992) पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
भावनाओं का गूढ़ और अनूठा सृजन ..
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंसादर
वाह
जवाब देंहटाएंवाह!खूबसूरत सृजन ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और सार्थक रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सन्देश देती सहज रचना , अभी कई नदियां पार करना होगा
जवाब देंहटाएंवाह!! बहुत सुंदर सृजन।
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