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सोमवार, 1 मार्च 2021

५४०.मंज़िल


बहुत दिनों बाद 

आज अवसर आया है 

कि प्लेटफ़ॉर्म पर हूँ.


घंटी हो चुकी है,

ट्रेन बस पहुँचने ही वाली है,

पर अब जब रवानगी पास है,

तो दिल बहुत उदास है.


सोचता हूँ,

कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं है,

वह ट्रेन जो पहुँचने ही वाली है,

मुझे मंज़िल तक ले जाएगी 

या मंज़िल से दूर?

10 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (03-03-2021) को     "चाँदनी भी है सिसकती"  (चर्चा अंक-3994)    पर भी होगी। 
    --   
    मित्रों! कुछ वर्षों से ब्लॉगों का संक्रमणकाल चल रहा है। आप अन्य सामाजिक साइटों के अतिरिक्त दिल खोलकर दूसरों के ब्लॉगों पर भी अपनी टिप्पणी दीजिए। जिससे कि ब्लॉगों को जीवित रखा जा सके। चर्चा मंच का उद्देश्य उन ब्लॉगों को भी महत्व देना है जो टिप्पणियों के लिए तरसते रहते हैं क्योंकि उनका प्रसारण कहीं हो भी नहीं रहा है। ऐसे में चर्चा मंच विगत बारह वर्षों से अपने धर्म को निभा रहा है। 
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --  

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  2. सदैव की तरह चिंतन लिए सुन्दर सृजन।

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  3. सुन्दर सृजन.... यात्रा से पहले यह विचार तो मन में आता ही है.जहाँ जा रहे हैं क्या वही मंजिल है या वो जहाँ से जाया से जा रहा है.... विचारणीय....

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  4. बहुत सुंदर कृति.मन को छू गई ..समय मिले तो ब्लॉग पर अवश्य भ्रमण करें..

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  5. सोचता हूँ,
    कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं है,
    वह ट्रेन जो पहुँचने ही वाली है,
    मुझे मंज़िल तक ले जाएगी
    या मंज़िल से दूर?

    बढ़िया कविता...

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