यह न समझना
कि तुम्हारी जीभ
तुम्हारे मुँह में है,
तो सुरक्षित है.
बड़ी कोमल है,
बड़ी नादान है,
बड़ी मासूम है
तुम्हारी जीभ.
ताक में बैठे हैं
तुम्हारे बत्तीस दाँत,
मौक़ा मिलते ही
टूट पड़ेंगे उसपर.
बाहरवाले नहीं,
तुम्हारी जीभ को
काट खाएंगे
तुम्हारे अपने ही दाँत।
सादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 19-03-2021) को
"माँ कहती है" (चर्चा अंक- 4010) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित हैं।
धन्यवाद.
…
"मीना भारद्वाज"
सोचने को विवश करती सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंबिलकुल .... घर का भेदी ही तो लंका ढाता है . विचारशील रचना .
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंNice Post :- Anushka Sen WhatsApp number
जवाब देंहटाएंअक्सर घर वालों से भी सचेत ही रहना पड़ता है,सुंदर सृजन,सादर नमन
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 18 मार्च 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंवाह क्या बात है बिल्कुल सत्य फरमाया आपने
जवाब देंहटाएंसुंदर सार्थक अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंसही...
जवाब देंहटाएंउम्दा रचना...
लाजवाब 👌
जवाब देंहटाएंबाहरवाले नहीं,
तुम्हारी जीभ को
काट खाएंगे
तुम्हारे अपने ही दाँत।..वाह!
गहन भाव,आस्तीन में साँप बैठे तो कैसे बचेगें ।
जवाब देंहटाएंघर में ही शत्रु तो फिर सुरक्षा कैसी।
सुंदर प्रस्तुति।
बचपन की रचना याद आ गई,
जवाब देंहटाएंमैं बत्तीस तू अकेला
मेरे बीच जो आयेगा,
सर तेरा कट जायेगा,
यानी अपनों से ही सावधान रहें, बेहतरीन रचना, बधाई हो आपको
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंभीतर घात सबसे भयावह है🙏🙏
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