कि तुम निकल पड़ोगे यात्रा पर,
मैं दौड़ा- दौड़ा गया स्टेशन तक,
तुम्हारी गाड़ी आ चुकी थी,
तुम बैठ चुके थे डिब्बे में,
मैंने खिड़की से झाँककर देखा,
तुमने हाथ हिलाया, ट्रेन चल दी.
पिता, क्या ऐसे भी कोई जाता है,
बिना कोई इत्तला दिए,
बिना कोई बातचीत किए,
ख़ासकर तब, जब यात्रा अंतिम हो.
भावुक कर देने वाली हृदयस्पर्शी रचना। शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंमर्मस्पर्शी भावों से युक्त अंतस् छूती रचना ।
जवाब देंहटाएंमार्मिक रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंमनोभावों की गहन अभिव्यक्ति।
थोड़े से शब्दों में बहुत कुछ कह दिया आपने |
जवाब देंहटाएंओह , बहुत मार्मिक ...
जवाब देंहटाएंयूँ तो सबके टिकट कट चुके होते हैं , बस दिन और समय का पता नहीं होता .... कब ट्रेन सिटी दे बैठा ले ...
भावुक कर दियग इन लाइनों ने
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर वर्णन किया है सर
हृदयस्पर्शी रचना - - - - साधुवाद सह।
जवाब देंहटाएंमर्मस्पर्शी!!!
जवाब देंहटाएंबेहद भावुक रचना , हृदय हृदयस्पर्शी
जवाब देंहटाएंपिता, क्या ऐसे भी कोई जाता है,
जवाब देंहटाएंबिना कोई इत्तला दिए,
बिना कोई बातचीत किए,
ख़ासकर तब, जब यात्रा अंतिम हो.
बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति ओंकार जी। ऐसे भी कोई लिखता है क्या??? निशब्द हूँ🙏🙏🙏
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