वे जो पराये लगते थे,
दूर नहीं हैं,
वे जो सख्त लगते थे,
पत्थर नहीं हैं,
वे जो चुप रहते थे,
गूंगे नहीं हैं,
वे जो अनदेखा करते थे,
अंधे नहीं हैं.
ध्यान से देखो,
किसी और ने नहीं
बाँध रखा है
तुमने ख़ुद को.
खोल दो बंधन,
फैला दो बाहें,
फिर देखो,
कैसे बदल जाती है
तुम्हारी यह बदरंग दुनिया?
सोचने को विवश करती सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार ( 08 -03 -2021 ) को 'आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है' (चर्चा अंक- 3999) पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
वाि क्या बात कही है ओंकार जी, ध्यान से देखो,
जवाब देंहटाएंकिसी और ने नहीं
बाँध रखा है
तुमने ख़ुद को....वाह
बहुत खूब ,छोटी सी रचना बहुत कुछ कह गई..
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी, सराहनीय अभिव्यक्ति । कम शब्दों का प्रयोग करते हुए सही राह दिखाई है आपने ।
जवाब देंहटाएंहौसला बुलंद कविता
जवाब देंहटाएंवाह।
नई रचना
बहुत सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंबधाई
आशा का संचार कराती कविता
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
बधाई
खोल दो बंधन,
जवाब देंहटाएंफैला दो बाहें,
बहुत सुन्दर सृजन।
बहुत बहुत सुन्दर
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