न जाने कहाँ से चले आ रहे हैं
इतने सारे थके-थके कदम,
भूखे पेट का बोझ लादे.
सामान का बोझ कम हो सकता है,
पर भूखे पेट का कैसे कम हो?
मीलों से चले आ रहे हैं ये कदम,
मीलों तक चलना है इन्हें,
उन्हीं घरों तक पहुँचना है,
जहाँ से निकले थे ये कभी,
उन्हीं गलियों तक पहुँचना है,
जो इन्होंने छोड़ी थीं कभी.
कोरोना ने समझाया है इन्हें
कि जिसे मंज़िल समझा था,
वह तो बस एक छलावा था,
मंज़िल तो इनकी वहीं थी,
जहाँ से ये कभी चले थे.
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 16 जून जून 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (17-06-2020) को "उलझा माँझा" (चर्चा अंक-3735) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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बहुत बढ़िया सर
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने।
जवाब देंहटाएंसत्य वचन . बहुत सुन्दर चिन्तन परक रचना .
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ... गहरा चिंतन ... मंजिल वैसे भी वही होती है ...
जवाब देंहटाएंसही कहा ,मजदूरों का यही हाल है कि जहाँ से चले थे वहीं आगए हैं ...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया।
जवाब देंहटाएंचलो चले उस ओर जिधर है अपना ठौर,वही है अपना देश ,यही बिताना है जीवन शेष ।
जवाब देंहटाएंआ अब लौट चले ,सो लौट आए सभी अपने गांव ।
बहुत ही बढ़िया है, आपको बधाई हो