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शनिवार, 3 अप्रैल 2021

५५०. तिनका



मैं एक तिनका हूँ,

उड़ा जा रहा हूँ,

लम्बी यात्राएँ तय की हैं मैंने,

न जाने कहाँ-कहाँ होकर 

यहाँ तक पहुंचा हूँ मैं. 


पंख नहीं थे मेरे,

फिर भी देर तक 

आसमान में तैरता रहा मैं. 


अब जब रुक गया हूँ,

ज़मीन पर गिरा हूँ,

तब समझ में आया है 

कि मैं उड़ रहा था

हवाओं के सहारे,

मेरी अपनी तो कोई 

औकात ही नहीं थी.  

10 टिप्‍पणियां:

  1. अब जब रुक गया हूँ,

    ज़मीन पर गिरा हूँ,
    तब समझ में आया है
    कि मैं उड़ रहा था
    हवाओं के सहारे,
    सारगर्भित संदेश समेटे यथार्थ दर्शाती रचना ।

    जवाब देंहटाएं
  2. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार ( 05-04 -2021 ) को 'गिरना ज़रूरी नहीं,सोचें सभी' (चर्चा अंक-4027) पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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  3. मैं एक तिनका हूँ,
    उड़ा जा रहा हूँ,

    लम्बी यात्राएँ तय की हैं मैंने,

    न जाने कहाँ-कहाँ होकर

    यहाँ तक पहुंचा हूँ मैं...बहुत ही सुंदर सृजन सर।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत ही सुंदर है, हार्दिक बधाई हो नमन

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  5. बहुत खूब ल‍िखा ओंकार जी...अब जब रुक गया हूँ,

    ज़मीन पर गिरा हूँ,

    तब समझ में आया है

    कि मैं उड़ रहा था

    हवाओं के सहारे,..मनको छूती रचना..अद्भुत

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  6. यथार्थ को दर्शाता हुआ बहुत सुंदर रचना

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  7. ओह कितना गहन दर्शन है आपकी पंक्तियों में सुंदर यथार्थवादी सृजन।

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  8. वाह, बहुत सुंदर और कोमल भाव लिए गूढ़ कविता ।

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