मैं एक तिनका हूँ,
उड़ा जा रहा हूँ,
लम्बी यात्राएँ तय की हैं मैंने,
न जाने कहाँ-कहाँ होकर
यहाँ तक पहुंचा हूँ मैं.
पंख नहीं थे मेरे,
फिर भी देर तक
आसमान में तैरता रहा मैं.
अब जब रुक गया हूँ,
ज़मीन पर गिरा हूँ,
तब समझ में आया है
कि मैं उड़ रहा था
हवाओं के सहारे,
मेरी अपनी तो कोई
औकात ही नहीं थी.
अब जब रुक गया हूँ,
जवाब देंहटाएंज़मीन पर गिरा हूँ,
तब समझ में आया है
कि मैं उड़ रहा था
हवाओं के सहारे,
सारगर्भित संदेश समेटे यथार्थ दर्शाती रचना ।
नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार ( 05-04 -2021 ) को 'गिरना ज़रूरी नहीं,सोचें सभी' (चर्चा अंक-4027) पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
मैं एक तिनका हूँ,
जवाब देंहटाएंउड़ा जा रहा हूँ,
लम्बी यात्राएँ तय की हैं मैंने,
न जाने कहाँ-कहाँ होकर
यहाँ तक पहुंचा हूँ मैं...बहुत ही सुंदर सृजन सर।
सादर
बहुत सुन्दर् और सशक्त रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर है, हार्दिक बधाई हो नमन
जवाब देंहटाएंबहुत खूब लिखा ओंकार जी...अब जब रुक गया हूँ,
जवाब देंहटाएंज़मीन पर गिरा हूँ,
तब समझ में आया है
कि मैं उड़ रहा था
हवाओं के सहारे,..मनको छूती रचना..अद्भुत
यथार्थ को दर्शाता हुआ बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविता । निस्संदेह !
जवाब देंहटाएंओह कितना गहन दर्शन है आपकी पंक्तियों में सुंदर यथार्थवादी सृजन।
जवाब देंहटाएंवाह, बहुत सुंदर और कोमल भाव लिए गूढ़ कविता ।
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