बचपन में जब मैं खेलता था,
दीवार के सहारे खड़े होकर
मुझे देखते रहते थे पिता,
मेरे गिरने पर बेचैन होते थे,
अच्छे खेल पर शाबाशी देते थे,
बुरे पर नाराज़ होते थे.
मैं अब भी गिरता हूँ,
मेरा प्रदर्शन कभी अच्छा,
तो कभी बुरा होता है,
पर अब पिता कुछ नहीं कहते,
बस चुपचाप दीवार से चिपककर
मुझे ताकते रहते हैं.
आपकी कविताओ की गहराई अथाह है। बधाई और आभार।
जवाब देंहटाएंअब पिता कुछ नहीं कहते,
जवाब देंहटाएंबस चुपचाप दीवार से चिपककर
मुझे ताकते रहते हैं...
हृदयस्पर्शी भाव लिए सुन्दर कविता।
मार्मिक लेखन जो ह्रदय को स्पर्श करता है |
जवाब देंहटाएंओह , मार्मिक एहसास ... अब दिवार से चिपके नहीं चिपकाए गए हैं ...
जवाब देंहटाएंगहन भाव
पिता को, भावपूर्ण सम्मान देती अनोखी रचना।
जवाब देंहटाएंसार्थक लेखन, भावप्रवण सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएंपिता पर लिखी भावपूर्ण कविता