कहने को तो यह वसंत है,
पर मुर्दनी छाई है हर तरफ़,
शाख़ें लदी हैं फूलों से,
मगर ख़ुशबू ग़ायब है,
दवाओं की बू आती है उनसे.
जहाँ देखो, काँटे-ही-कांटे हैं,
इंजेक्शन-से चुभते हैं,
हवा में घुटन है,
ऑक्सीजन नहीं है कहीं,
सिलिंडर भी ख़ाली हैं.
पंछी रुक-रुककर पुकारते हैं,
जैसे मरीज़ कराह रहे हों,
बूंदा-बांदी हो जाती है कभी-कभी,
जैसे रुलाई फूट रही हो किसी की.
कुछ हरे पत्ते तो हैं पेड़ों पर,
मगर झर रहे हैं लगातार,
आसमान में चाँद आधा है,
जैसे मास्क लगा रखा हो किसी ने.
इतना गर्म वसंत
पहले तो कभी नहीं देखा,
चिताओं का जलना बंद हो,
तब तो सुहाना हो मौसम.
यह कैसा वसंत है?
क्या यही ऋतुओं का राजा है?
इससे तो पतझड़ अच्छा था,
न जाने यह वसंत कब जाएगा.
सच ही , नहीं चाहिए ऐसा वसंत ।
जवाब देंहटाएंइस रचना ने मर्म को छू लिया । आज हर जगह ऐसे ही हालात दिख रहे ।
सचमुच इससे अच्छा तो पतझड़ ही था । मर्मस्पर्शी भावाभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंइस बार तो बसन्त का कोई मतलब ही नहीं रहा। चारों तरफ निराशा ही निराशा है।
जवाब देंहटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार ( 26-04 -2021 ) को 'यकीनन तड़प उठते हैं हम '(चर्चा अंक-4048) पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी कोई रचना सोमवार 26 अप्रैल 2021 को साझा की गई है ,
जवाब देंहटाएंपांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
आदरणीय ओंकार जी, यह बसंत नही, अंत है ....एक दुर्दान्त है।।।।।।
जवाब देंहटाएंलेकिन, ये दिन भी गुजर जाएगा, किसी मौसम की तरह।।।।।
bhaavpurna rachana , bahut sundar!
जवाब देंहटाएंAbhar!
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जवाब देंहटाएंसुंदर भावाभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंमर्मस्पर्शी सृजन ।
जवाब देंहटाएंआदरणीय सर , बहुत ही करुण रचना । सच , आज प्रकृति का कोई रूप मन को आनंदित नहीं करता , कोई भी शब्द मन को धैर्य नहीं दे पाता। माँ प्रकृति से प्रार्थना है कि वे हमें अपने शाप से मुक्त करें और मानव जीवन पुनः खिलखिला उठे ।
जवाब देंहटाएंबेहद मार्मिक कविता है ओंकार जी, बहुत खूब लिखा...इतना गर्म वसंत
जवाब देंहटाएंपहले तो कभी नहीं देखा,
चिताओं का जलना बंद हो,
तब तो सुहाना हो मौसम..सच कहा आपने
असामयिक चिताओं से सुलगते बसन्त पर मार्मिक प्रस्तुति! निशब्द हूँ ओंकार जी 🙏
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