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शुक्रवार, 29 जनवरी 2021

५३०. सुख



रेल की पटरियाँ 

न जाने कब से बिछी हैं 

अपनी जगह पर,

इनपर से रोज़ गुज़रती हैं

बहुत सी रेलगाड़ियाँ.


कभी-कभार कोई आता है,

इनके पेंच कस जाता है,

इनपर हथौड़ा मार जाता है,

फिर भी ये डटी रहती हैं.


दर्द सहकर भी अपनी जगह 

पड़ी रहती हैं रेल की पटरियाँ,

उन्हें महसूस करना होता है 

यात्रियों को उनकी 

मंज़िल तक पहुँचाने का सुख.

9 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (31-01-2021) को   "कंकड़ देते कष्ट"    (चर्चा अंक- 3963)    पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-    
    --
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

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  2. कभी-कभार कोई आता है,

    इनके पेंच कस जाता है,

    इनपर हथौड़ा मार जाता है,

    फिर भी ये डटी रहती हैं.

    बहुत ही अच्छी कविता बधाई और शुभकामनायें

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  3. मंज़िल तक पहुँचाने का सुख''
    किसी आम के वश का है भी नहीं

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