सूरज की पहली किरण
चुपके से घुसती है
खिड़की के रास्ते कमरे में,
देखती है, सोई हुई है वह,
मासूमियत छाई है उसके चेहरे पर.
ठिठक जाती है सूरज की किरण,
खड़ी रहती है कमरे के कोने में,
निहारती है उसे अनवरत,
फिर साहस कर आगे बढती है,
छू लेती है उसे धीरे से,
जाग जाती है वह.
सूरज की किरण सोचती है,
वह चुपचाप कोने में खड़ी रहती,
तो शायद टूटती नहीं उसकी नींद.
कल फिर लौटेगी किरण,
खिड़की के रास्ते फिर घुसेगी कमरे में,
खड़ी रहेगी एक कोने में,
निहारेगी उसे एकटक,
पर क्या रोक पाएगी ख़ुद को
उसे छूने से, जो बेख़बर सोई है.
सादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 15-01-2021) को "सूर्य रश्मियाँ आ गयीं, खिली गुनगुनी धूप"(चर्चा अंक- 3947) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित हैं।
धन्यवाद.
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"मीना भारद्वाज"
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 14 जनवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंमकर संक्रान्ति का हार्दिक शुभकामनाएँ।
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति । शुभकामनाएँ ।
जवाब देंहटाएंकाश...
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
बेहतरीन रचना आदरणीय
जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर औऱ भावपूर्ण कविता
बधाई
किरण की अपनी मजबूरी है, उसे सूरज का भी साथ देना है
जवाब देंहटाएंवाह!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर औऱ भावपूर्ण कविता।
बधाई।
आपकी कविताएँ कितनी सुंदर होती हैं!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
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