वह जो चला था
कभी परदेस से
अपने गाँव नहीं पहुंचा है,
रास्ते में ही कहीं फंसा है,
न आगे जा सकता है,
न पीछे लौट सकता है.
वह जो चला था
कभी परदेस से
बहुत परेशान है,
करे तो क्या करे,
उसकी जान उसके
कंठ में अटकी है,
न आगे आ सकती है,
न पीछे लौट सकती है.
कभी परदेस से
अपने गाँव नहीं पहुंचा है,
रास्ते में ही कहीं फंसा है,
न आगे जा सकता है,
न पीछे लौट सकता है.
वह जो चला था
कभी परदेस से
बहुत परेशान है,
करे तो क्या करे,
उसकी जान उसके
कंठ में अटकी है,
न आगे आ सकती है,
न पीछे लौट सकती है.
आज के सच का शब्द-चित्र!
जवाब देंहटाएंयथार्थपूर्ण सृजन ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंमार्मिक काव्य चित्र ओँकारजी। सच में बहुत असहाय सा बन कर रह गया है श्रमिक वर्ग। 🙏🙏
जवाब देंहटाएंयथार्थ को इंगित करता बहुत सुंदर सृजन.
जवाब देंहटाएंसादर
कामगारों का सटीक चित्रण.
जवाब देंहटाएंआ ओंकार जी, सहज, सरल और स्पष्ट वक्तव्य ! सचमुच:
जवाब देंहटाएंउसकी जान उसके
कंठ में अटकी है,
न आगे आ सकती है,
न पीछे लौट सकती है। --ब्रजेन्द्र नाथ
ण आगे ण पीछे ... सक्स्च हैं ... काश कोई उन्हें निकाले इस अटकाव के बंधन से ...
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