जब मिलने के अवसर बहुत थे,
हम कतराकर निकल जाते थे,
अब लॉकडाउन में घर पर हैं,
तो मिलने को तरसते हैं.
***
जब सड़कें भरी होती थीं,
हम खोजते थे शांति,
अब सब शांत है,
तो हमें चाहिए कोलाहल.
***
जब समय नहीं मिलता था,
हम तलाशते थे आराम,
अब समय ही समय है,
तो हम खोजते हैं काम.
बहुत सही कहा।
जवाब देंहटाएंविवशता है जी कोरोना के कारण।
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (04 मई 2020) को 'गरमी में जीना हुआ मुहाल' (चर्चा अंक 3705) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
*****
रवीन्द्र सिंह यादव
संशोधन-
हटाएंआमंत्रण की सूचना में पिछले सोमवार की तारीख़ उल्लेखित है। कृपया ध्यान रहे यह सूचना आज यानी 18 मई 2020 के लिए है।
असुविधा के लिए खेद है।
-रवीन्द्र सिंह यादव
बहुत ही सही बात है आप की रचना में। बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंसुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंसाधुवाद !
जवाब देंहटाएंमानव मन की यही विडंबना है जो नहीं मिलता उसे पाने दौड़ता है. सार्थक और बहुत ही सुंदर सृजन आदरणीय सर.
जवाब देंहटाएंसादर
कोरोना के कारण आज का सत्य यही है . सुन्दर रचना .
जवाब देंहटाएंshaandar kavita
जवाब देंहटाएंwww.khetikare.com