खिड़कियाँ खोल दो,
सूरज को अन्दर आने दो,
स्वागत करो हवा के झोंकों का,
नए मौसम की फुहारों का.
गमलों में तुमने जो फूल लगाए थे,
उनकी ख़ुशबू अन्दर आना चाहती है,
पौधों की कुछ सूखी पत्तियां
कब से देहरी पर खड़ी हैं,
कुछ परिंदे बैठे हैं मुंडेर पर,
शीशे से टकरा रहे हैं उनके गीत.
मत रोको,
आ जाने दो सबको अन्दर,
लॉकडाउन के दिनों में ख़त्म कर दो
कुछ गैर-ज़रूरी लॉकडाउन.
बहुत खूब सर!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार(०९-०५-२०२०) को 'बेटे का दर्द' (चर्चा अंक-३६९६) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
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अनीता सैनी
सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंमत रोको,
जवाब देंहटाएंआ जाने दो सबको अन्दर,
लॉकडाउन के दिनों में ख़त्म कर दो
कुछ गैर-ज़रूरी लॉकडाउन.
बहुत ही सुंदर सोच ,सादर नमस्कार सर
Nice Line, Keep writing
जवाब देंहटाएंBook Rivers
वाह!!!
जवाब देंहटाएंसटीक एवं सार्थक...बेहतरीन सृजन।
बहुत सुन्दर.., सकारात्मक ऊर्जा सम्पन्न भावाभिव्यक्ति .
जवाब देंहटाएंआ ओंकार जी, प्रकृति के अवदानों को इस लॉक डाउन में नहीं रोकें। खिड़कियों को खोलकर रखें। बहुत सुंदर अभिव्यक्ति!--ब्रजेंद्रनाथ
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंमेरी रचना भी पढ़ें
काफी समय बाद लिखा..
http://merisyahikerang.blogspot.com/2020/05/blog-post.html?m=1
बहुत खूब ... आने दो अन्दर ...
जवाब देंहटाएंप्रकृति ही आंनद हे बढ़िया सर
जवाब देंहटाएंआ ओंकार जी, बहुत अच्छी रचना ! ये पंक्तियाँ तो लाजवाब हैं :
जवाब देंहटाएंमत रोको,
आ जाने दो सबको अन्दर,
लॉकडाउन के दिनों में ख़त्म कर दो
कुछ गैर-ज़रूरी लॉकडाउन
मेरे ब्लॉग marmagyanet.blogspot.com पर मेरी रचनाएँ भी पढ़ें और अपने बहुमूल्य विचारों से अवगत कराएं ! सादर --ब्रजेन्द्र नाथ