लॉकडाउन में हैं,
साथ-साथ हैं,
मगर चुप हैं,
महसूस कर रहे हैं
रिश्तों की भीनी-सी आंच.
कुछ बोलेंगे,
तो कम हो सकती हैं
ये नजदीकियाँ,
शब्दों के नीचे
दब सकते हैं अहसास.
इतना बहुत है
कि हम साथ-साथ हैं,
बोलना ज़रूरी नहीं है,
बोलने से कहीं
बेअसर न हो जाय लॉकडाउन.
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (13-05-2020) को "अन्तर्राष्ट्रीय नर्स दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ" (चर्चा अंक-3700) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
इतना बहुत है
जवाब देंहटाएंकि हम साथ-साथ हैं,
बोलना ज़रूरी नहीं है,
बोलने से कहीं
बेअसर न हो जाय लॉकडाउन.
बहुत ही उम्दा.., लाजवाब सृजन ।
वाह! अब क्या लिखें! शब्दों के नीचे दब सकते हैं अहसास!!!
जवाब देंहटाएंयह मंज़ूरी के बाद दिखने वाला सिस्टम हटाइए।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब सर!
जवाब देंहटाएंसुंदर सार्थक सृजन।
जवाब देंहटाएंसुन्दर भाव।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति आदरणीय सर
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