एक डर है,
जो अन्दर गहरे
घुसा जा रहा है.
नींद की तलाश में
रातें बिस्तर पर
करवटें बदलती हैं.
बड़ी देर में होती हैं
आजकल सुबहें,
सूरज थका-सा लगता है.
दोपहर उदास है,
शाम चिड़चिड़ी-सी,
वक़्त जैसे ठहरा पानी.
चाँद निकल आया है
आसमान में, लेकिन
उसमें धब्बे बहुत हैं.
मुझे आश्चर्य होता है
कि कैसे बदल देता है दुनिया
एक बिनबुलाया डर.
सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंसब डर आधारहीन नहीं होते हैं
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 20 मार्च 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंठहरी हुई जिंदगी में
जवाब देंहटाएंउदासी, नाउम्मीद, बैचैनी, नकारात्मक सोच ही पनपती है थीक ठहरे हुए पानी मे काई पनपती है जैसे।
नई रचना सर्वोपरि?
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार(२१-०३-२०२०) को "विश्व गौरैया दिवस"( चर्चाअंक -३६४७ ) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
बहुत भावपूर्ण रचना, बधाई.
जवाब देंहटाएंडर....
जवाब देंहटाएंबड़ी देर में होती हैं
आजकल सुबहें,
सूरज थका-सा लगता है.
कोरोना डर भी आजकल ऐसा ही फैला है...
बहुत सुन्दर समसामयिक सृजन।
वाह!!!
आधारहीन नहीं अब तो यह जीता जागता सामने खड़ा है, हाँ, डर कर नहीं मजबूती से सामना करना है
जवाब देंहटाएंदोपहर उदास है,
जवाब देंहटाएंशाम चिड़चिड़ी-सी,
वक़्त जैसे ठहरा पानी...
आजकल कमोबेश यही स्थिति है । बहुत सटीक भावाभिव्यक्ति ।
सच ,एक डर ने सब कुछ बदल दिया हैं ,सुंदर सृजन ,सादर नमन
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