कविताएँ
रविवार, 15 मार्च 2020
४१०.शोला
मैं शोला हूँ,
मुझमें घी मत डालो,
भड़क उठूंगा,
छोड़ दो मुझे चुपचाप,
मैं ठंडा हो जाऊंगा,
राख बन जाऊंगा,
तुम्हें पता भी नहीं चलेगा.
**
मैं शोला था,
राख का बोझ सहता रहा,
तुम आए,
फूँक भी नहीं मारी
और वापस लौट गए.
2 टिप्पणियां:
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
15 मार्च 2020 को 5:02 am बजे
सार्थक सृजन।
कभी तो दूसरों के ब्लॉग पर भी अपनी टिप्पणी दिया करो।
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सुशील कुमार जोशी
16 मार्च 2020 को 6:52 am बजे
सुन्दर रचना।
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सार्थक सृजन।
जवाब देंहटाएंकभी तो दूसरों के ब्लॉग पर भी अपनी टिप्पणी दिया करो।
सुन्दर रचना।
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