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शनिवार, 5 जून 2021

५७५. दुश्मन





अँधेरी रात,

बियाबान जंगल,

बेबस,अकेला मैं. 


बढ़ी चली आ रही हैं 

मेरी ओर धीरे-धीरे 

दो चमकती आँखें,

मौत के डर से 

पसीना-पसीना 

हुआ जा रहा हूँ मैं. 


अरे,वहशी जानवर नहीं,

यह तो कोई मददगार है,

जो पास आ पहुँचा है मेरे

हाथों में दिए लिए. 


अब कोई डर नहीं,

पार कर लूँगा मैं

यह घनघोर जंगल,

चला जाऊंगा 

अँधेरे से बहुत दूर. 


कल्पनाओं का जंगल,

आशंकाओं का अँधेरा,

वहम का जानवर -

यह सारा ताना-बाना

जिसने बुना है,

वह मेरा होकर भी 

मेरा दुश्मन है.  


10 टिप्‍पणियां:

  1. दिल ही दुश्मन है मुखालिफ़ के गवाहों की तरह...सब दिल या मन की कल्पनाएँ ही तो हैं दुश्मन सा काम करती हैं...सुन्दर रचना...

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  2. सही कहा है, कल्पना और आशंका न हो तो साहस बरकरार रहता है

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  3. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (०९ -०६-२०२१) को 'लिप्सा जो अमरत्व की'(चर्चा अंक -४०९१ ) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  4. बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति ।

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  5. सच है, है ही ऐसा, अपना हो कर भी कभी-कभी दुश्मनी निभाता है

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  6. बहुत अच्छी और गहन पंक्तियां।

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  7. डर इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन है!सार्थक सन्देश।

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  8. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ,डर और आशंकाओं से ही तो घीरे है हम ,सादर नमन आपको

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