अँधेरी रात,
बियाबान जंगल,
बेबस,अकेला मैं.
बढ़ी चली आ रही हैं
मेरी ओर धीरे-धीरे
दो चमकती आँखें,
मौत के डर से
पसीना-पसीना
हुआ जा रहा हूँ मैं.
अरे,वहशी जानवर नहीं,
यह तो कोई मददगार है,
जो पास आ पहुँचा है मेरे
हाथों में दिए लिए.
अब कोई डर नहीं,
पार कर लूँगा मैं
यह घनघोर जंगल,
चला जाऊंगा
अँधेरे से बहुत दूर.
कल्पनाओं का जंगल,
आशंकाओं का अँधेरा,
वहम का जानवर -
यह सारा ताना-बाना
जिसने बुना है,
वह मेरा होकर भी
मेरा दुश्मन है.
वाह ♥️
जवाब देंहटाएंदिल ही दुश्मन है मुखालिफ़ के गवाहों की तरह...सब दिल या मन की कल्पनाएँ ही तो हैं दुश्मन सा काम करती हैं...सुन्दर रचना...
जवाब देंहटाएंसही कहा है, कल्पना और आशंका न हो तो साहस बरकरार रहता है
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (०९ -०६-२०२१) को 'लिप्सा जो अमरत्व की'(चर्चा अंक -४०९१ ) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंसच है, है ही ऐसा, अपना हो कर भी कभी-कभी दुश्मनी निभाता है
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी और गहन पंक्तियां।
जवाब देंहटाएंडर इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन है!सार्थक सन्देश।
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति ,डर और आशंकाओं से ही तो घीरे है हम ,सादर नमन आपको
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