मैंने पिता को कभी रोते नहीं देखा,
किसी अपने की मौत पर भी नहीं,
ग़म का पहाड़ टूटने पर भी नहीं,
बस उनकी आवाज़ भर्रा जाती थी,
या दिख जाती थी थोड़ी-सी नमी
उनकी पलकों के ठीक पीछे.
रात को मेरी नींद उचटती थी,
तो एक सिसकी सुनाई पड़ती थी,
दबी-कुचली, ज़िद्दी-सी सिसकी,
पिता थोड़े चिड़चिड़े हो गए थे,
बूढ़े होने की जल्दी में लगते थे.
काश कि वे खुलकर रो लेते,
काश कि मैं उनसे कह पाता
कि पिता भी कभी-कभी रो सकते हैं.
पिता कभी कभी रो सकते हैं ..... बस एक आह और ....वाह .
जवाब देंहटाएंउफ़! झकझोर दिया आपने।
जवाब देंहटाएंसार्थक सृजन।
सुन्दर
जवाब देंहटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (14-06-2021 ) को 'ये कभी सत्य कहने से डरते नहीं' (चर्चा अंक 4095) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
वाह!सच कहा आपने । सटीक अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंबहुत ही मार्मिक सृजन।
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत खूब
जवाब देंहटाएंसुंदर मर्मस्पर्शी रचना....
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