कोई एम्बुलेंस,
कोई अस्पताल,
कोई बेड,
कोई डॉक्टर,
कोई नर्स,
कोई इंजेक्शन,
कोई दवा.
कुछ भी नहीं चाहिए मुझे,
पर आप ही कहें
कि इस देश का नागरिक होने के नाते
या इंसान होने के नाते
साँस लेने के लिए
थोड़ी-सी हवा पर
मेरा हक़ है कि नहीं
और यह हवा मुझ तक पहुँचाना
आपकी ज़िम्मेदारी है कि नहीं?
प्रासंगिक प्रश्न करती सुंदर कृति।
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 07-05-2021) को
"विहान आयेगा"(चर्चा अंक-4058) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित है.धन्यवाद
…
"मीना भारद्वाज"
वाजिब सवाल
जवाब देंहटाएंसुंदर, सामयिक
वाह।
जवाब देंहटाएंवाकई ! अब हवा भी छीनी जा रही है, तथाकथित विकास के नाम पर दूषित किया जा रहा है जीवनरक्षक प्राणवायु को !
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंसार्थक लेखन
जवाब देंहटाएंहक तो है परंतु जब पेड़ काटे जा रहे थे तो हम मौन रहकर देख रहे थे, विकास के नाम पर विनाश के बीज बोए जा रहे थे तो हम चुप रहे कि हमें क्या ?
जवाब देंहटाएंअब भुगत रहे हैं।
हक अपने साथ जिम्मेदारियाँ लेकर भी आता है.... शायद हम मनुष्यों ने उन जिम्मेदारियों का निर्वाह करने में कमी की थी....प्रासंगिक रचना....
जवाब देंहटाएंउफ़ .... यही दिन बचे थे देखने के लिए और एक कवि को लिखने के लिए .
जवाब देंहटाएंहर नागरिक यही सवाल लिए बैठा है काश हर नागरिक पहले से जागरूकता रखता अपने हिस्से का कर्त्तव्य निभाता।
जवाब देंहटाएंमर्मस्पर्शी रचना।
सारगर्भित
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