अब भी हम वैसे ही मिलते हैं,
जैसे पहले मिला करते थे,
वैसी ही बातें करते हैं,
जैसी पहले किया करते थे.
बातों में वही शब्द,
होठों पर वही मुस्कुराहट,
सब कुछ वही है,
फिर भी मुझे क्यों लगता है
कि हम वैसे नहीं रहे,
जैसे कभी हुआ करते थे?
हमारे बीच वह क्या है,
जो कभी था,
पर अब नहीं है?
कुछ तो है,
जो मैं नहीं समझ पाया,
शायद तुमने समझा हो,
अगर हाँ, तो मुझे भी बताना.
ज़रूरी नहीं होता
एक साथ समझ जाना,
पर ज़रूरी होता है
जल्दी-से-जल्दी
दोनों का जान जाना.
वाह।
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण कृति ।
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जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (०२-०४-२०२३) को 'काश, हम समझ पाते, ख़ामोश पत्थरों की ज़बान'(चर्चा अंक-४६५२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
क्या था...साथ है बस इतना ही काफ़ी नहीं है क्या...जो था वही इस जन्म के लिये बहुत है...नवीनता की तलाश व्यक्ति को पुराने से दूर करने लगती है...इस कविता में भावाभिव्यक्ति बहुत ही ख़ूबसूरत तरह से की गयी है...जान के भी अनजान बने रहना कितना सुखद है...सुन्दर रचना...👏👏👏
जवाब देंहटाएंलाजबाब सृजन
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना सर,
जवाब देंहटाएंज़रूरी नहीं होता
जवाब देंहटाएंएक साथ समझ जाना,
पर ज़रूरी होता है
जल्दी-से-जल्दी
दोनों का जान जाना.
.. बहुत सुंदर और सत्य भावाभिव्यक्ति।
सब कुछ बदल रहा है पल पल
जवाब देंहटाएंआपके लेखन का तरीका अच्छा है, मन मोहित हो जाता है और चिंतन भी होता है।
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