हम एक ही रास्ते पर चले,
एक ही मंज़िल की ओर बढ़े,
पर साथ-साथ नहीं,
कोई वजह नहीं थी,
बस एक झिझक थी,
एक ज़िद थी
कि हम अकेले भी चल सकते हैं.
कभी तुम गिरे,
कभी मुझे चोट लगी,
पर हम चुपचाप देखते रहे,
न किसी ने किसी को पुकारा,
न किसी ने कोई पहल की.
अब जब मंज़िल दूर है,
वक़्त बचा ही नहीं,
तो थोड़ी हलचल हुई है,
वह भी इशारों-इशारों में.
कितनी अजीब बात है
कि हम ख़ुद से छूट जाते हैं,
पर ज़िद और झिझक से
चाहकर भी नहीं छूट पाते.
नमस्ते.....
जवाब देंहटाएंआप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की ये रचना लिंक की गयी है......
दिनांक 26/03/2023 को.......
पांच लिंकों का आनंद पर....
आप भी अवश्य पधारें....
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (26-03-2023) को "चैत्र नवरात्र" (चर्चा अंक 4650) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
कितनी अजीब बात है
जवाब देंहटाएंकि हम ख़ुद से छूट जाते हैं,
पर ज़िद और झिझक से
चाहकर भी नहीं छूट पाते.
गहराई को शब्दों में पिरोने की कला अद्भुत है आपकी रचना में
शुभकामनाएं।
बहुत सुंदर रचना 👌👌
जवाब देंहटाएंकितनी अजीब बात है
जवाब देंहटाएंकि हम ख़ुद से छूट जाते हैं,
पर ज़िद और झिझक से
चाहकर भी नहीं छूट पाते.
बहुत ही गहरी बात । सुंदर प्रस्तुति ।
जिद तो जिद है। ये जिद ना होती तो ज़ज़्बे और जज्बात शून्य हो सो रह्ते।🙏
जवाब देंहटाएंअहंकार का दूसरा नाम ही ज़िद है, इससे बचना मानो अपना सिर काटना है, कबीर ने कहा है न यह खाला का घर नहीं है
जवाब देंहटाएंकितनी अजीब बात है
जवाब देंहटाएंकि हम ख़ुद से छूट जाते हैं,
पर ज़िद और झिझक से
चाहकर भी नहीं छूट पाते.
जिंदगी में छोटा सा अहम कब बड़ा बन जाता है पता हो नही चलता.. आइना दिखाती सुंदर रचना।
बहुत गहरी बात बता दी आपने, आसान शब्दों में,
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