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रविवार, 21 नवंबर 2021

६२१. ख़ामोश घर

 


बहुत शोर था कभी उस घर में, 

आवाज़ें आती रहती थीं वहां से

कभी हंसने,कभी रोने की,

कभी बहस करने,कभी झगड़ने की,

कोई गुनगुनाता था वहां कभी-कभी, 

चूड़ियां,तो कभी पायल खनकती थी वहाँ,

आवाज़ें आती थीं बर्तनों के खड़कने की,  

सुबह-शाम नल से पानी गिरने की.


अब वह घर ख़ामोश है,

आवाज़ें विदा हो गई हैं वहां से, 

अब वह घर मुझे अच्छा नहीं लगता, 

ऐसे चुपचाप घर किसी को अच्छे नहीं लगते,

वे किसी के भी क्यों न हों. 


11 टिप्‍पणियां:

  1. ऐसे चुपचाप घर किसी को अच्छे नहीं लगते,
    वे किसी के भी क्यों न हों. ...,
    सत्य कथन । हृदयस्पर्शी सृजन ।

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  2. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार
    (23-11-21) को बुनियाद की ईंटें दिखायी तो नहीं जाती"( चर्चा अंक 4257) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
    --
    कामिनी सिन्हा

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  3. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा बुधवार (24 -11-2021 ) को 'मुखौटा पहनकर बैठे हैं, ढोंगी आज आसन पर' (चर्चा अंक 4258 ) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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  4. ऐसे चुपचाप घर किसी को अच्छे नहीं लगते,

    वे किसी के भी क्यों न हों
    सही कहा घरों की खमोशी बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगता...
    सार्थक सृजन।

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  5. चुपचाप घर, घर होते ही नहीं । ईंट पत्थरों का पुतला होते हैं,सुंदर शानदार सारयुक्त रचना ।

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  6. उस मौन में भी आवाज़ों को जो ढूँढ ले वही तो कवि है

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  7. घर शोर करे तो अच्छे वर्ना खामोशी तो वीराने में भी होती है ...

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