बहुत शोर था कभी उस घर में,
आवाज़ें आती रहती थीं वहां से
कभी हंसने,कभी रोने की,
कभी बहस करने,कभी झगड़ने की,
कोई गुनगुनाता था वहां कभी-कभी,
चूड़ियां,तो कभी पायल खनकती थी वहाँ,
आवाज़ें आती थीं बर्तनों के खड़कने की,
सुबह-शाम नल से पानी गिरने की.
अब वह घर ख़ामोश है,
आवाज़ें विदा हो गई हैं वहां से,
अब वह घर मुझे अच्छा नहीं लगता,
ऐसे चुपचाप घर किसी को अच्छे नहीं लगते,
वे किसी के भी क्यों न हों.
ऐसे चुपचाप घर किसी को अच्छे नहीं लगते,
जवाब देंहटाएंवे किसी के भी क्यों न हों. ...,
सत्य कथन । हृदयस्पर्शी सृजन ।
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार
(23-11-21) को बुनियाद की ईंटें दिखायी तो नहीं जाती"( चर्चा अंक 4257) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
--
कामिनी सिन्हा
सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंसादर
नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा बुधवार (24 -11-2021 ) को 'मुखौटा पहनकर बैठे हैं, ढोंगी आज आसन पर' (चर्चा अंक 4258 ) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
अति सुंदर
जवाब देंहटाएंअति उत्तम
जवाब देंहटाएंऐसे चुपचाप घर किसी को अच्छे नहीं लगते,
जवाब देंहटाएंवे किसी के भी क्यों न हों
सही कहा घरों की खमोशी बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगता...
सार्थक सृजन।
चुपचाप घर, घर होते ही नहीं । ईंट पत्थरों का पुतला होते हैं,सुंदर शानदार सारयुक्त रचना ।
जवाब देंहटाएंउस मौन में भी आवाज़ों को जो ढूँढ ले वही तो कवि है
जवाब देंहटाएंघर शोर करे तो अच्छे वर्ना खामोशी तो वीराने में भी होती है ...
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