फेंक दो गुलेलें,
एक यही तो खेल नहीं है.
देखो, पेड़ों की डालियों पर
सहमे बैठे हैं पंछी,
क्या तुम्हें नहीं भाता
उनका चहचहाना?
***
अगर नहीं फेंक सकते गुलेल,
तो यूँ कर लो,
पत्थर नहीं, फूल चलाओ,
जितना चाहो,
परिंदों पर बरसाओ.
***
खेल के नाम पर
बच्चों के हाथों में
गुलेल मत दो,
चहचहाते पंछियों को
ख़ामोश कर देना
कुछ भी हो सकता है,
खेल नहीं हो सकता.
सुन्दर
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही लिखा है आपने।
जवाब देंहटाएंआपने कविता के माध्यम से बहुत सुन्दर और हृदयस्पर्शी संदेश दिया है । अति सुन्दर सृजन ।
जवाब देंहटाएंसटीक । भावपूर्ण अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(१८-०९-२०२१) को
'ईश्वर के प्रांगण में '(चर्चा अंक-४१९१) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
सुंदर रचना..। मानवता का गहन सबक लिए हुए....
जवाब देंहटाएंमानव को मानवता सिखाती बहुत ही खूबसूरत रचना!
जवाब देंहटाएंवैसे हम लोगों ने भी बचपन में बहुत गुलेल चलाते थे पर वह किसी जीव या जंतु पर नहीं बल्कि फलों को तोड़ने के लिए चलाते थे!नन्ही चिड़िया पर गुलेल चलाना बहुत ही गलत है!
wah!!! ये सोच सबकी होनी चाहिए!
जवाब देंहटाएंहर प्राणी के लिए मन में कोमल भाव हो तो इससे सुंदर अहिंसा का क्या उदाहरण होगा।
जवाब देंहटाएंनमन।
प्रेरक रचना।
अहिंसा परमोधर्म!
सही कहा जिससे जीव मात्र को परेशानी हो वह खेल नहीं हो सकता...गुलेल फेंकना ही बेहतर है।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर सृजन
वाह!!!
सार्थक सृजन ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंअगर नहीं फेंक सकते गुलेल,
जवाब देंहटाएंतो यूँ कर लो,
पत्थर नहीं, फूल चलाओ,
जितना चाहो,
परिंदों पर बरसाओ.
सुंदर.....