मैं थक गया हूँ
कांटे चुनते-चुनते,
पर जितने चुनता हूँ,
उतने ही और निकल आते हैं.
मैं ऊब गया हूँ
कंकड़ बीनते-बीनते,
पर कंकड़ हैं
कि ख़त्म ही नहीं होते.
लगता है,
ये कांटे,ये कंकड़
कहीं बाहर नहीं,
मेरे अंदर ही हैं,
बहुत मुश्किल है
इन्हें निकाल पाना,
उससे भी मुश्किल है
इन्हें देख पाना,
देखकर पहचान पाना.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार (29-12-2022) को "वाणी का संधान" (चर्चा अंक-4630) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हाँ, यह पूरे जीवन साथ रहेंगे यह तय है, हमें इनके साथ जीना सीखना होगा !
जवाब देंहटाएंकाँटों और कंकड़ों के मध्य ही सुमन सुशोभित होते है ,
जवाब देंहटाएंकंकड़ पाथर चुन राह बनाओ , कांटे तो बागड़ होते है !
अभिनन्दन ! लिखते रहिये ! जय श्री कृष्ण जी !
उम्दा प्रस्तुति ।
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