अपने आख़िरी समय में
कुछ कहना चाहते थे पिता.
आँखें पथरा गई थीं उनकी,
आवाज़ बंद थी,
सिर्फ़ हाथ थे,
जो इशारा कर रहे थे.
बहुत कोशिश की उन्होंने,
पर समझा नहीं पाए,
ज़िन्दगी भर उन्होंने
आँखों से ही जो समझाया था.
कभी-कभार ही करते थे
पिता जीभ का इस्तेमाल,
पर आज आँखों और जीभ
दोनों ने दग़ा दे दिया था,
सिर्फ़ हाथ थे,
जो अब भी उनके साथ थे,
पर हम नहीं समझते थे
उनके हाथों की भाषा.
मौत को चाहिए कि
अपना नियम बदले,
थोड़ी मोहलत दे दे,
इतनी निष्ठुर न बने
कि जाने से पहले कोई अपनी
आख़िरी बात भी न कह सके.
मर्मस्पर्शी सृजन ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 06 दिसम्बर 2021 को साझा की गयी है....
जवाब देंहटाएंपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
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जवाब देंहटाएंमेरे दिवंगत पिताजी के अंतिम पलों का मर्मान्तक सत्य हुबहू लिख दिया आपने ओंकार जी। एक हूक सी उठा दी कविता ने। मौत कभी मोहलत नहीं देती और इसका नियम बदलने का सदियों से कोई प्रावधान नहीं आगे भी ये कभी बदलने वाला नहीं है।
जवाब देंहटाएंबेहद मार्मिक चित्रण।
जवाब देंहटाएंसादर।
अत्यंत मार्मिक व हृदयस्पर्शी ..
जवाब देंहटाएंमर्म को छूती सुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंप्रकृति के कई शाश्वत नियमों को बदलना असम्भव ही है, ऐसे में बुज़ुर्गों की सही नसीहत याद आती है कि हम इंसानों को हर दिन को अपना आख़िरी दिन मान कर अपनों से, अपने मन की बात कह देनी चाहिए .. ताकि जाने पर कुछ छुटा-सा ना रह जाए .. शायद ...
जवाब देंहटाएंमर्म को छू रही है रचना ... गहरे भाव ...
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