मैं सपने नहीं देखता,
कितनी ही कोशिश क्यों न कर लूँ,
कोशिश से नींद तो आ सकती है,
सपने नहीं।
पर कल रात मैंने सपना देखा
और सपने में गाँधी को,
उन्होंने पूछा,
‘स्वाधीनता दिवस कैसा रहा?’
मैंने कहा,
‘हर साल जैसा.’
उन्होंने कहा,
‘इस साल सपने देखना,
शायद अगला कुछ अलग हो.’
मैंने कहा,
‘मुझे तो सपने आते ही नहीं।’
वे हंसकर बोले,
‘मैं उन सपनों की बात कर रहा हूँ
जो जागते हुए देखे जाते हैं.
सोते में देखे गए सपने
कुछ हासिल कर पाते हैं क्या?
जागते हुए सपने देखोगे,
सबके लिए देखोगे,
तभी देश स्वाधीन होगा.’
गांधीजी चले गए,
मेरी नींद टूट गई,
मैं सोचता हूँ,
सपने देखना आसान नहीं है,
रात को सपने आते नहीं,
और दिन में सपने देखने का
न समय है, न साहस.
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 18 अगस्त 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंगहन सृजन।
जवाब देंहटाएंगहन सृजन ।
जवाब देंहटाएंगांधी जी और उनके सपने दोनो अनछुए से लगते है अब ।
जवाब देंहटाएंउत्तम रचना ।
सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
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