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बुधवार, 21 जुलाई 2021

५९०.अख़बार



मैं नहीं पढ़ता अख़बार,

उसमें छपी ख़बरें पढ़कर 

बस उदास हो जाता हूँ,

कुछ कर नहीं पाता. 


किसका बलात्कार हुआ,

किसकी हत्या,

किसका अपहरण,

कहाँ बम फटा,

कहाँ आग लगी,

किसने घोटाला किया,

बस यही तो छपता है 

हर रोज़ अख़बार में. 


लगता है,

न कुछ अच्छा हुआ है,

न हो रहा है,

न हो सकता है,

न कोई सच्चा है,

न कोई भरोसे-लायक. 


मेरे सामने अख़बार पढ़ो,

तो चुपचाप पढ़ना,

पन्ना पलटने की आवाज़ से भी 

डूबने लगती है 

मेरी बची-खुची उम्मीद.


10 टिप्‍पणियां:

  1. वाकई , यही खबरें होती हैं अखबार में .... सटीक विवेचन।

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  2. बहुत बढ़िया। ख़बरों की प्रवृत्ति नकारात्मक होती है। निराशा स्वभाविक है। आपको शुभकामनाएँ।

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  3. वाह,बढ़िया अर्थपूर्ण रचना। वाकई अखबार में कुछ अच्छा बमुश्किल छपता है।

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  4. बहुत ही सुन्दर...इसलिए अक्सर स्पोर्ट्स पेज पहले पढ़ा जाना चाहिए...वहां जीत की खबरे अक्सर मिल जाती हैं.....

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  5. डूबने लगती है

    मेरी बची-खुची उम्मीद.
    सही कहा आपने खबरे पढ़ते ही बची-खुची उम्मीद.भी चली जाती है और मन उदास,
    सार्थक सृजन,सादर नमन

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  6. सटीक ! पर चाय की तरह इसकी भी लत पड़ चुकी है ! भले ही हाथ में लेते ही रक्तचाप बढ़ जाता हो ! पर अभी भी इसके पक्ष में एक बात तो है कि अभी भी अधिकांश लोग अन्य माध्यमों की अपेक्षा ज्यादा भरोसा करते हैं !

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  7. बहुत बहुत सुन्दर सच्चाई व्यक्त करती सराहनीय रचना

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  8. बहुत सही लिखा आपने अखबार ब्लडप्रेशर बढ़ाता है आजकल ,और दिन भर का सिर दर्द भी।
    सटीक।

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