स्कूटर भाई, अब चलते हैं,
किसी कबाड़ी के यहां रहते है,
तुम भी पुराने, मैं भी पुराना,
बीत चुका है हमारा ज़माना।
यूं उदास मत होना,
जो नए हैं, कभी-न-कभी
वे भी पुराने होंगे,
उनका हाल देखने के लिए
बस हम नहीं होंगे।
स्कूटर भाई, अब चलते हैं,
किसी कबाड़ी के यहां रहते है,
तुम भी पुराने, मैं भी पुराना,
बीत चुका है हमारा ज़माना।
यूं उदास मत होना,
जो नए हैं, कभी-न-कभी
वे भी पुराने होंगे,
उनका हाल देखने के लिए
बस हम नहीं होंगे।
1.
दिवाली के बाद सड़कों पर
यूं बिखरा था पटाखों का मलबा,
जैसे काम निकल जाने के बाद
सही चेहरा दिखे किसी का।
2.
पटाखों का मलबा देखा,
तो मैंने सोचा,
कितना शोर कर रहे थे कल,
आज जाकर पता चली
इनकी असली औक़ात।
3.
सड़क पर पड़े रॉकेट ने कहा,
कुछ सीखो मुझसे,
जो बहुत ऊपर जाता है,
उसे भी आना पड़ता है ज़मीन पर
कभी-न-कभी।
4.
रॉकेट जो कल उड़कर
आसमान में पहुंचा था,
आज इतना बेबस है
कि नहीं बदल सकता
अपने आप करवट भी।
5.
ये चल चुके पटाखे हैं,
फेंक दो इन्हें कूड़ेदान में,
तब की बात और थी,
जब इनमें बारूद भरा था।
मैं आम तौर से हास्य कविताएं नहीं लिखता, पर इस दिवाली में ऐसी कुछ छोटी-छोटी कविताएं लिखी गईं। मैं इस अनुरोध के साथ साझा कर रहा हूँ कि इन्हें मेरा व्यक्तिगत अनुभव न माना जाय। पाठक ऐसी कोई भी टिप्पणी करने से बचें, जिससे मेरी दिवाली ख़राब होने की संभावना हो।
1.
तुमने रंगोली बनाई,
तो मुझे कहना ही पड़ा
कि अच्छी है,
पिछली बार सच बोला था,
तो सुननी पड़ी थी
पटाखों की आवाज़।
2.
यह दिवाली का बम नहीं
कि बस एक बार फटे,
चिंगारी लग गई,
तो कौन जाने,
कितनी बार फटे।
3.
तुम चकरी चलाती हो,
तो मैं सोचता हूँ,
कितना हुनर है तुममें,
तुम्हें बनाना भी आता है,
चलाना भी।
4.
हमेशा मत फटा करो
लाल पटाखों की तरह,
कभी-कभी ही सही,
दूर चली जाया करो
रॉकेट की तरह।
5.
यह ऐसा पटाखा है,
जो कभी फुस्स नहीं होता,
एक बार आ जाए,
तो फटकर ही मानता है।
मैं जिससे निकला हूँ,
असहज हूँ उससे,
कहाँ मैं कमल,
कहाँ वह कीचड़,
मैं ख़ुशबू से सराबोर,
वह बदबूदार।
कोई मेल नहीं
मेरा और उसका,
उसके साथ रहना
उतना बुरा नहीं लगता,
जितना उसके साथ दिखना।
काश कि मैं जा पाता
उससे बहुत दूर,
जैसे बच्चे चले जाते हैं
गाँव से शहर
कभी न लौटने के लिए।
पिछले दिनों असम के मशहूर गायक ज़ुबिन गर्ग की 52 साल की उम्र में एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। उनकी अंतिम यात्रा में गुवाहाटी में एक जन-सैलाब देखा गया। लिम्का बुक ऑफ रेकॉर्ड्स में इसे किसी अंतिम यात्रा में इतिहास का चौथा सबसे बड़ा जन-समागम बताया गया। असम के दिल की धड़कन पर तीन छोटी-छोटी कविताएं।
***
सुबह सूरज कुछ अनमना-सा था,
कुछ थका-थका, कुछ बुझा-बुझा,
लगता है, उसने भी गुज़ारी थी
कल की रात करवटें बदलकर।
***
पंद्रह लाख ज़ुबिन उतरे
उसकी विदाई में सड़कों पर,
पता ही नहीं चला
कि कौन सा ज़ुबिन ज़िंदा था
और कौन सा नहीं था।
***
फिर कभी आओ,
तो ज़ुबिन बनकर आना,
कहीं और नहीं,
यहीं आसाम में आना।
एक हम ही हैं,
जो समझेंगे तुम्हें,
एक हम ही हैं,
जिन्हें पता होगा
तुम्हारा मूल्य।
ईश्वर,
मुझे वह सब मत देना,
जो मैं मांग रहा हूँ,
दे दोगे, तो और माँगूँगा,
हो सकता है कि अगर तुम
मांगा हुआ सब कुछ दे दो,
तो मुझे कुछ ऐसा मिल जाए,
जो मेरे लिए बेकार,
किसी और के लिए ज़रूरी हो।
ईश्वर,
अपने विवेक का इस्तेमाल करना,
अपनी स्तुति पर मत रीझना,
प्रार्थना से मत पिघलना,
ज़रूरत से थोड़ा कम देना,
बस उतना ही
कि मैं छीन न सकूँ
किसी और का हक़,
बना रहूँ मनुष्य।
मेरा पासवर्ड मेरी कविता की तरह है,
मैं नहीं जानता उसका अर्थ,
न ही वह मुझे याद रहता है।
मेरे पासवर्ड में न लय है,
न कोई मीटर,
मैं तो यह भी नहीं जानता
कि उसकी भाषा क्या है,
भाषा है भी या नहीं।
फिर भी मैं जानता हूँ
कि मेरे पासवर्ड में
कुछ खोज ही लेंगे लोग,
जैसे मेरे लिखे में
कविता ढूँढ़ लेते हैं
मेरे पाठक।
फ़ाइल बाद में बना लेंगे,
पहले पासवर्ड बनाते हैं,
छिपाने का इंतज़ाम करते हैं,
बाद में तय करेंगे
कि छिपाना क्या है।
**
याद रखना पासवर्ड,
बस तीन मौक़े मिलेंगे,
कोई ज़िंदगी नहीं है
कि बार-बार ग़लती करो
और रास्ता खुला रहे।
आइसक्रीम वाला आता था,
तो आ जाते थे
मोहल्ले के सारे बच्चे,
यह उन दिनों की बात है,
जब फ़्रिज़ नहीं होते थे घरों में,
जब नहीं होती थी आइसक्रीम
सिर्फ़ आइसक्रीम.
++
वह बच्चा, जो रोज़ बेचता है
मोहल्ले में आइसक्रीम ,
अक्सर सोचता है,
अगर वह बेचनेवाला नहीं,
ख़रीदनेवाला होता,
तो वह भी खा सकता था
कभी-कभार कोई आइसक्रीम।
ट्रेन,
इतनी देर क्यों रुकती हो तुम?
कोई तो नहीं चढ़ता यहाँ से,
किसका इंतज़ार है तुम्हें?
किस उम्मीद में जी रही हो तुम?
तुम्हारे पास तो कोई
कमी भी नहीं यात्रियों की,
भरी रहती हो हमेशा,
फिर वह कौन है, जिसके लिए
इतनी जगह है तुम्हारे दिल में,
जिसे कोई क़द्र नहीं तुम्हारी?
ट्रेन,
मेरी बात मानो,
किसी दिन बिना रुके चली जाओ,
झुककर तो बहुत देख लिया तुमने,
एक बार सिर उठाकर भी देखो ।
न जाने कब से खड़ा हूँ
इस भीड़-भरे प्लेटफ़ॉर्म पर,
ट्रेनें आती जा रही हैं
कभी इस ओर से,
कभी उस ओर से,
रुक रही हैं ठीक मेरे सामने।
चढ़ रहे हैं यात्री
अपनी-अपनी ट्रेनों में
पहुँच ही जाएंगे गंतव्य तक,
पुराने यात्रियों की जगह
आ गए हैं अब नए यात्री,
पर मैं वहीं खड़ा हूँ, जहां था।
कब तक करूंगा इंतज़ार,
कब तक रहूँगा दुविधा में,
अब चढ़ ही जाता हूँ
किसी-न-किसी ट्रेन में,
चढ़ूँगा, तभी तो पहुंचूंगा
कहीं-न-कहीं, कभी-न-कभी।