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शुक्रवार, 18 मार्च 2022

६३९. इस बार की होली




इस बार ख़ूब खेली होली मैंने,

पर बात कुछ बनी ही नहीं. 


बहुत लगाया अबीर-गुलाल सब ने ,

पर रंग कोई चढ़ा ही नहीं,

पिचकारियां भी चलाईं,गुब्बारे भी फेंके,

पर मन था कि भीगा ही नहीं. 


ख़ूब खाईं मिठाइयाँ होली में,

पर जीभ से परे  मिठास गई ही नहीं,

गले तो बहुत मिला लोगों से मगर,

मन किसी ने छुआ ही नहीं. 


इस बार ख़ूब खेली होली मैंने,

पर महसूस कुछ हुआ ही नहीं,

क्या मैं बस एक दर्शक था

खेलने वाला मैं था ही नहीं?


5 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(१९-०३ -२०२२ ) को
    'भोर का रंग सुनहरा'(चर्चा अंक-४३७३)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. आदरणीय ओंकार जी,नमस्ते👏! इस बार होली में मन किसी ने छुआ ही नहीं। बहुत अच्छी रचना! रंगों और उमंगों भरी होली की अशेष शुभकामनाएँ!--ब्रजेंद्रनाथ

    जवाब देंहटाएं
  3. समाप्त प्रायः संवेदनाओं का सटीक आभास देती रचना।
    होली पर हार्दिक शुभकामनाएं।

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  4. इस बार ख़ूब खेली होली मैंने,

    पर महसूस कुछ हुआ ही नहीं,

    क्या मैं बस एक दर्शक था

    खेलने वाला मैं था ही नहीं?
    मन के घर्षण के साथ होली का संयोग ।
    बहुत खूब ।

    जवाब देंहटाएं
  5. मन बैरागी हो तो कोई रंग उसे कहाँ छू पाता है। दुनिया की रस्में निभाते बाहरी व्यक्तित्व के अलावा एक एक व्यक्तित्व अन्दर का भी होता है जिसे इन्सान खुद अनुभव कर सकता है,जो नितांत निजी होता है 🙏

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