बचपन में जब मैं
पिता के कंधे पर बैठता था,
तो जैसे किसी दूसरी दुनिया में
पहुँच जाता था.
ख़ुद को सबसे बड़ा
महसूस करता था,
बड़े भाई-बहनों से भी बड़ा,
जो पिता के साथ चलते थे.
मुझे लगता था,
मैं जैसे कोई राजा हूँ,
सिंहासन पर बैठा हूँ
और बाक़ी सब मेरी प्रजा हैं.
अब पिता नहीं हैं,
बड़ा हो गया हूँ मैं,
अब कोई कंधा नहीं है,
जिस पर सवार हो सकूं मैं.
ज़मीन पर चलते हुए
अब मुझे लगता है
कि मैं बहुत छोटा हूँ,
सबसे छोटा.
काश कि वे दिन लौट आते,
काश कि मैं फिर से
उतना बड़ा हो पाता,
जितना बचपन में हुआ करता था.
बहुत सुन्दर और भावपूर्ण प्रस्तुति ओंकार जी।निश्चित रूप से पिता के स्कंद शिखर पर बैठे आकंठ गर्वित बालक से बड़ा कौन हो सकता है?पिता पर आपके अनमोल सृजन आँखें नम कर देते हैं।इस भावाभिव्यक्ति पर निशब्द हूँ 🙏
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (१२ -०३ -२०२२ ) को
'भरी दोपहरी में नंगे पाँवों तपती रेत...'(चर्चा अंक-४३६७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बचपन की यादें बड़ी अनमोल होती हैं । बहुत सुन्दर सृजन ।
जवाब देंहटाएंकिसी भी उमर में पिता जी का स्नेह संसार के किसी भी स्नेह से परे ही लगता है, बहुत सुंदर सार्थक रचना ।
जवाब देंहटाएंसच पिता के कंधे पर बैठा पुत्र गर्वित होता है और सुरक्षित भी ,उस सिंहासन से ऊंचा और कोई सिंहासन नहीं होता ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर हृदय स्पर्शी सृजन।