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गुरुवार, 10 फ़रवरी 2022

६३५. कोहरा





जब घना कोहरा छा जाता है,

हाथ को हाथ नहीं सूझता,

मुझे दिखती है मेरी आकृति,

जो सवाल पूछती है मुझसे-

खुरदुरे, कँटीले सवाल. 


ये सवाल कर देते हैं मुझे 

असहज, बेचैन, निरुत्तर,

मैं लौट जाना चाहता हूँ 

शोर में, अस्त-व्यस्तता में,

पर कोहरा है 

कि जल्दी छँटता ही नहीं. 


मुझे कोहरा पसंद नहीं,

क्योंकि उसमें दिखती है 

मुझे मेरी आकृति,

जिससे मैं डरता हूँ, 

जो सवाल बहुत पूछती है. 


9 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (१२ -०२ -२०२२ ) को
    'यादों के पिटारे से, इक लम्हा गिरा दूँ' (चर्चा अंक-४३३९)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. खुद के सवालों से भी डर ..... रहस्यमयी अभिव्यक्ति ।

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  3. कर्म और मन जब दोनों मेल नहीं खाते
    तब आत्मचिंतन का पथ कँटीला हो जाता है।
    ये हरेक जीवन की कहानी है।
    बहुत उम्दा रचना।

    नई पोस्ट- CYCLAMEN COUM : ख़ूबसूरती की बला

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  4. गहरी अभीव्यक्ति … कोहरे में अक्सर किसी का। ही अक्स उभर आता है …

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  5. जब घना कोहरा छा जाता है,
    हाथ को हाथ नहीं सूझता,
    मुझे दिखती है मेरी आकृति,
    जो सवाल पूछती है मुझसे-
    खुरदुरे, कँटीले सवाल. ,,,,,, बहुत सुंदर रचना

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  6. बेचैन करने वाली सुन्दर रचना, बधाई।

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