जब घना कोहरा छा जाता है,
हाथ को हाथ नहीं सूझता,
मुझे दिखती है मेरी आकृति,
जो सवाल पूछती है मुझसे-
खुरदुरे, कँटीले सवाल.
ये सवाल कर देते हैं मुझे
असहज, बेचैन, निरुत्तर,
मैं लौट जाना चाहता हूँ
शोर में, अस्त-व्यस्तता में,
पर कोहरा है
कि जल्दी छँटता ही नहीं.
मुझे कोहरा पसंद नहीं,
क्योंकि उसमें दिखती है
मुझे मेरी आकृति,
जिससे मैं डरता हूँ,
जो सवाल बहुत पूछती है.
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (१२ -०२ -२०२२ ) को
'यादों के पिटारे से, इक लम्हा गिरा दूँ' (चर्चा अंक-४३३९) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
हृदय स्पर्शी सृजन!!
जवाब देंहटाएंखुद के सवालों से भी डर ..... रहस्यमयी अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंकर्म और मन जब दोनों मेल नहीं खाते
जवाब देंहटाएंतब आत्मचिंतन का पथ कँटीला हो जाता है।
ये हरेक जीवन की कहानी है।
बहुत उम्दा रचना।
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सुन्दर
जवाब देंहटाएंगहरी अभीव्यक्ति … कोहरे में अक्सर किसी का। ही अक्स उभर आता है …
जवाब देंहटाएंजब घना कोहरा छा जाता है,
जवाब देंहटाएंहाथ को हाथ नहीं सूझता,
मुझे दिखती है मेरी आकृति,
जो सवाल पूछती है मुझसे-
खुरदुरे, कँटीले सवाल. ,,,,,, बहुत सुंदर रचना
बेचैन करने वाली सुन्दर रचना, बधाई।
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