मेरा मकान-
बदरंग,
जैसे बालों-भरे सिर पर
गंजेपन का कोई टुकड़ा,
जैसे साफ़ कपड़े पर
कोई तेल का धब्बा,
जैसे खुरचा हुआ कोई पुराना घाव.
मेरा मकान-
अकेला,
जैसे घर के कोने में पड़ा
पिछले साल का कैलेंडर,
जैसे जाड़े की रात में
चौराहे पर खड़ा बूढ़ा,
जैसे अँधेरे में टिमटिमाती
गाड़ी की पिछली बत्ती.
मैं-
बदरंग और अकेला,
जैसे मेरा मकान.
वाह
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 06 जून 2024 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
मकान बदरंग और अकेले हो जाते हैं जब कोई उनमें नहीं रहता, आदमी भी बदरंग और अकेले हो जाते हैं जब हर उम्मीद का दामन छूट जाता है, मार्मिक रचना !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
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