ब्रह्मपुत्र,
कल शाम तुम्हारे पानी में
जो सूरज डूबा था,
अब तक निकला ही नहीं.
खोजो उसे,
निकालो जल्दी से,
कहीं दम न घुट जाए उसका.
इतना भी क्या प्रेम सूरज से
कि जान ही ले लो उसकी,
सतह पर आने ही न दो उसे.
आकाश को उसका इंतज़ार है,
न जाने कितनी आँखें
उसे देखने को तरस रही हैं.
चाँद भी थककर सो गया है,
वह भी जानता है
कि भले ही वह ज़्यादा सुन्दर हो,
सूरज की जगह नहीं ले सकता.
ब्रह्मपुत्र,
कभी ध्यान से देखो,
डूबते हुए सूरज से
कहीं ज़्यादा अच्छा लगता है
उगता हुआ सूरज.
अभिनव चिन्तन । लाजवाब सृजन ।अति सुन्दर ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" रविवार 21 अप्रैल 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन
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