बरामदे के कोने में
वह चुपचाप पड़ी रहती है,
कोई नसीहत नहीं देती,
कोई टाँग नहीं अड़ाती.
जो दे दो,पहन लेती है,
जो खिला दो,खा लेती है,
जहाँ ले जाओ,चली जाती है,
जहाँ छोड़ दो, रह जाती है.
न कुछ मांगती है,
न ज़िद करती है,
कभी कोई डाँट दे,
तो बस सुन लेती है.
कोई शिकायत नहीं करती,
आँसू तक नहीं बहाती,
फिर भी वह मुझे नहीं सुहाती,
क्योंकि वह खाँसती बहुत है.
:(
जवाब देंहटाएंमर्मस्पर्शी
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना सोमवार 29 अगस्त 2022 को
जवाब देंहटाएंपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(२९-०८ -२०२२ ) को 'जो तुम दर्द दोगे'(चर्चा अंक -४५३६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
हृदयविदारक रचना, सोचने को मजबूर करती।
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब ओंकार जी.
जवाब देंहटाएंवाक़ई, बेबस, लाचार का तो खांसना भी गुनाह है.
मन में टीस उत्पन्न करती रचना ।
जवाब देंहटाएंक्या बात है। दिमाग सुन्न कर दिया।
जवाब देंहटाएंखांसी का संदर्भ दे बहुत ही मार्मिक कविता ।
जवाब देंहटाएंएक मर्मांतक और कटु सत्य को उद्घाटित करती रचना ओंकार जी।सरल शब्दों में वहुत कुछ सहजता से कहना कोई आपसे सीखे 🙏🙏
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक रचना !
जवाब देंहटाएंबहुत ही हृदयस्पर्शी !
जवाब देंहटाएंसटीक कटु सत्य पर आधारित
बहुत लाजवाब।
ओह ! मर्मस्पर्शी !!
जवाब देंहटाएंओह, माँ
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