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शनिवार, 27 अगस्त 2022

६६३. उसकी खाँसी

 


बरामदे के कोने में 

वह चुपचाप पड़ी रहती है, 

कोई नसीहत नहीं देती,

कोई टाँग नहीं अड़ाती. 


जो दे दो,पहन लेती है,

जो खिला दो,खा लेती है, 

जहाँ ले जाओ,चली जाती है, 

जहाँ छोड़ दो, रह जाती है. 


न कुछ मांगती है,

न ज़िद करती है, 

कभी कोई डाँट दे,

तो बस सुन लेती है. 


कोई शिकायत नहीं करती,

आँसू तक नहीं बहाती,

फिर भी वह मुझे नहीं सुहाती,

क्योंकि वह खाँसती बहुत है. 


14 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना सोमवार 29 अगस्त 2022 को
    पांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    संगीता स्वरूप

    जवाब देंहटाएं
  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(२९-०८ -२०२२ ) को 'जो तुम दर्द दोगे'(चर्चा अंक -४५३६) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  3. हृदयविदारक रचना, सोचने को मजबूर करती।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत ख़ूब ओंकार जी.
    वाक़ई, बेबस, लाचार का तो खांसना भी गुनाह है.

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  5. मन में टीस उत्पन्न करती रचना ।

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  6. क्या बात है। दिमाग सुन्न कर दिया।

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  7. खांसी का संदर्भ दे बहुत ही मार्मिक कविता ।

    जवाब देंहटाएं
  8. एक मर्मांतक और कटु सत्य को उद्घाटित करती रचना ओंकार जी।सरल शब्दों में वहुत कुछ सहजता से कहना कोई आपसे सीखे 🙏🙏

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  9. बहुत मार्मिक रचना !

    जवाब देंहटाएं
  10. बहुत ही हृदयस्पर्शी !
    सटीक कटु सत्य पर आधारित
    बहुत लाजवाब।

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