अक्सर मैं रातों को चौंक जाता हूँ,
नींद जो टूटती है, तो जुड़ती ही नहीं,
दिन में सुनी गई बातों के ख़ंजर
रात के सन्नाटे में बेहद क़रीब लगते हैं.
जो हथियार दिन में चलते हैं,
रातों को बहुत ज़ख़्म देते हैं,
मैं हर रोज़ मर जाता हूँ,
हर रोज़ बच भी जाता हूँ.
ऐसे तिलस्मी ख़ंजर भी होते हैं,
तभी जाना, जब वे मुझपर चले.
वाह वाह!बहुत ख़ूब
जवाब देंहटाएंबातों के खंजर से वाकई अक्सर नींद खुल जाती है । बेहतरीन लिखा ।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (5-6-22) को "भक्ति को ना बदनाम करें"'(चर्चा अंक- 4452) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
हृदयस्पर्शी सृजन ।
जवाब देंहटाएंवाह !
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक लिखा है आपने। मन को छूती सुंदर रचना
भावपूर्ण सृजन
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