बेघर होती हैं सड़कें,
बारिश में भीगती हैं,
ठण्ड में ठिठुरती हैं,
धूप में तपती हैं सड़कें.
जूतों तले दबती हैं,
टायरों तले कुचलती हैं,
थूक-पीक झेलती हैं,
ख़ामोश रहती हैं सड़कें.
मरी-सी लेटी रहती हैं,
जीवन चलता है उनपर,
ख़ुद तो नहीं चलतीं,
दूसरों को चलाती हैं सड़कें.
जब भी कभी सांस आती है,
ध्रुवतारा खोजती हैं सड़कें,
सूनी आँखों से ऊपर देखती हैं,
मंज़िल तलाशती हैं सड़कें.
त्याग की परिभाषा पढ़ाती बहुत ही सुन्दर रचना.
जवाब देंहटाएंसादर
सड़क मां होती है कई मायनों में।
जवाब देंहटाएंसुंदर
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (18-11-2019) को "सर कढ़ाई में इन्हीं का, उँगलियों में, इनके घी" (चर्चा अंक- 3523) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं….
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रवीन्द्र सिंह यादव
बहुत सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंवाह लाजवाब है सड़क की आहें व्यथा और आपबीती ।
जवाब देंहटाएंमुझे मेरी एक रचना भी याद दिला गई काफी पुरानी।
बहुत कुछ करती हुयी भी चुप रहती हैं सडकें ...
जवाब देंहटाएंबहुर लाजवाब ...
आज पहली बार आपकी कविता पढ़ी मैंने , हमारी एक मित्र ने मुझे आपकी कविताएं पढ़ने के लिए प्रेरित किया था..सड़क का मानवीकरण करती हुई बेहद प्रभावशाली रचना.. निर्जीव वस्तुओं की भी भावनाएं होती है बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंप्रभावी रचना , मंगलकामनाएं आपको !
जवाब देंहटाएंबेघर होती हैं सड़कें लेकिन सबको घर पहुँचाती हैं सड़कें..,
जवाब देंहटाएंलाजवाब और बेहतरीन सृजन ।