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रविवार, 14 अप्रैल 2024

७६२.पहाड़ों पर धुंध

 

लम्बे-ऊंचे पेड़,

जो कभी ढलान पर उगे थे, 

हमने काट दिए हैं,

पहाड़ों के सीने में घुसकर 

हमने निकाल लिए हैं 

दबे हुए खनिज. 

 

जहाँ पगडंडियाँ भी नहीं थीं,

वहां हमने बना ली हैं सड़कें,

जहाँ चरवाहे भी नहीं जाते थे,

वहां हम मनाने लगे हैं पिकनिक. 

 

चिड़ियाँ चहचहाती थीं जहाँ,

वहां अब गूंजते हैं फ़िल्मी गाने,

खो चुके हैं पहाड़ अब 

अपना सारा पहाड़पन. 

 

पहाड़ अब नंगे हैं,

क़रीब से देख रही हैं उन्हें 

हज़ारों लाखों नज़रें,

मुग्ध हो रही हैं 

उनकी सुंदरता पर. 

 

पहाड़ कोशिश में हैं 

कि अपना नंगापन छिपा लें,

धुंध उनका पैरहन है. 





सोमवार, 8 अप्रैल 2024

७६१. ख़ामोश झील पर चांद

 


पर्दे के पीछे तेरा रूप दमकता है,

जैसे शाख़ों के पीछे आफ़ताब चमकता है. 


तेरे गालों पर झुकी हुई बालों की लट,

जैसे कोई भंवरा फूल पर उतरता है. 


तेरे होंठों पर खिली ये मासूम-सी मुस्कान,

जैसे पहाड़ों के बीच से बादल गुज़रता है. 


ये काजल की लक़ीरें, ये ख़ूबसूरत आँखें,

जैसे पत्तों में सिमटकर फूल महकता है. 


मेरे मन के वीराने में तेरे प्यार का एहसास,

जैसे राख के अंदर कोई शोला भड़कता है. 


रात तेरी याद कुछ इस तरह आती है,

जैसे ख़ामोश झील पर चांद उतरता है. 


तू जो हंसती है, तो हरेक शै हंसती है,
तू जो रोती है, तो ज़र्रा-ज़र्रा सिसकता है. 

मंगलवार, 2 अप्रैल 2024

७६०.नरम-दिल पहाड़

 


पतली घुमावदार पगडंडियाँ 

कभी ऊपर, कभी नीचे,

कभी सामने, कभी ओझल,

जैसे कोई नटखट बच्ची 

पहाड़ों की ढलान पर 

मस्त दौड़ रही हो. 

 

देवदार के बेशर्म पेड़

घाटी से उचक-उचककर 

लगातार ताक रहे हैं

गाड़ी में बैठी लड़की को. 

 

साफ़ पानी की पतली धार 

थोड़े-थोड़े क़दमों के फ़ासले पर 

अपनी परिचित आवाज़ में 

व्यस्त-सा सलाम करती 

सर्र से निकल जाती है. 

 

न जाने कहाँ से आते हैं 

शीतल,पनीले बादल,

उंगलियों से चेहरों को सहलाकर,

हल्का-सा आलिंगन देकर 

पल-भर में चले जाते हैं. 

 

तुम अजनबी हो तो क्या,

यहाँ तुम्हारा स्वागत है, 

यह नरम-दिल पहाड़ है, 

कोई मैदानी शहर नहीं है. 

***


मेरी यह कविता हाल ही में हिंदी की वेब-पत्रिका राग दिल्ली( Social and Political News - Raag Delhi) में छपी है.

शुक्रवार, 22 मार्च 2024

७५९. गुलाल



तुमने कहा 

कि तुमने होली में मुझे

पक्का रंग नहीं,

सिर्फ़ गुलाल लगाया.

इतना तो बता दो

कि कहाँ से ख़रीदा तुमने 

ऐसा जादुई गुलाल,

जो बदन से तो उतर जाए,

पर मन से चिपका रहे. 

++

मेरे चेहरे पर तुमने

जहाँ गुलाल लगाया था, 

वहां फफोले उभर आए हैं,

इस बार होली में गुलाल लगाओ,

तो दस्ताने पहन कर लगाना. 

++

तुम्हारे हाथों में 

न पिचकारी थी,

न बाल्टी,न गुब्बारा था,

सूखा रंग लगाया तुमने,

फिर मैं इतना कैसे भीग गया? 

++

बड़ा इंतज़ार था मुझे होली का, 

देर तक खड़ा रहा 

तुम्हारी खिड़की के नीचे मैं.

न तुमने खिड़की खोली,

न गुब्बारा फेंका,

पर अच्छा लगा मुझे,

जब मैंने खिड़की के पीछे का पर्दा

हिलते हुए देखा. 

++

वैसे तो होली में तुम पर 

रंगों की बौछार होती होगी, 

पर ध्यान से देखोगी, तो जानोगी 

कि मेरा रंग सबसे गहरा है. 

++

पिछली होली में तुम पर 

मैंने जो गुलाबी रंग डाला था, 

इस होली में वह  

तुम्हारी आँखों में दिख रहा है. 

++

तुमने सबके साथ होली खेली,

पर मेरे साथ नहीं,

इसे मैं क्या समझूँ,

तुम्हारी बेरुख़ी या तुम्हारा प्यार?

++

इस बार उसने होली में 

मेरी ओर देखा तक नहीं,

मुझे पक्का यक़ीन है 

कि नज़रें चुराने में

उसे मुश्किल हुई होगी. 

++

तुमने जो गुझिया खिलाई,

वह मीठी बहुत ज़्यादा थी, 

तुम्हें ख़ुद ही खिलाना था,

तो चीनी नहीं मिलाना था. 

++

होली पर तुम्हें देखा, तो जाना 

कि बाल हरे रंग के हों,

तो भी अच्छे लगते हैं. 

++

कई तरह के रंग खिले हैं 

तुम्हारे कपड़ों पर होली में,

कौन कहता है 

कि बिना धूप और बारिश के 

इंद्रधनुष नहीं बनता. 

++

मैं रंग-अबीर लेकर गया,

पर तुमने दरवाज़ा ही नहीं खोला, 

कम-से-कम इतना तो कह दो,

कि तुमने मैजिक आई से झाँका था.


शुक्रवार, 15 मार्च 2024

७५८. मार्च में कविताएँ

 


मुझे मार्च का महीना पसंद है,

कविताएँ लिखने के लिए 

इससे अच्छा कोई महीना नहीं है. 


मार्च में आम के पेड़ों पर बौर होते हैं,

मदहोश करनेवाली हवाएँ बहती हैं, 

बाग़ों में फूल खिले होते हैं,

पेड़ों पर कोयलें कूकती हैं. 


मार्च में न ठण्ड होती है, न गर्मी,

न रज़ाई चाहिए, न ए.सी., 

न बरसात होती है, 

न पसीना बहता है, 

लिखने का मूड बनता है,

लिखना सस्ता भी पड़ता है. 


मैं मार्च में ख़ूब कविताएँ लिखता हूँ,

मैं मानता हूँ 

कि एक वित्त-वर्ष का लक्ष्य 

उसी में हासिल कर लेना चाहिए,

अप्रैल तक नहीं टालना चाहिए. 

***