शब्दों के भी पंख होते हैं,
वे नहीं रहते सिर्फ़ वहां,
जहां उन्हें लिखा जाता है।
कभी वे आसमान में चले जाते हैं,
दिखते हैं, पर हाथ नहीं आते,
कभी वे अंदर पैठ जाते हैं,
साफ़-साफ़ दिखाई पड़ते हैं।
शब्द काग़ज़ पर रहते हैं,
फिर भी उड़ जाते हैं,
वे पंछी नहीं
कि उड़ने के लिए
घोंसला छोड़ना पड़े उन्हें।
बड़े भ्रमित करते हैं शब्द,
जितने बाहर होते हैं,
उतने ही अंदर भी,
जितने सामने होते हैं,
उतने ही ओझल भी,
कभी नहीं दिखता काग़ज़ पर
शब्दों का असली रूप।