आज फिर यादें टूट के बरसीं,
आज फिर ग़म के अंकुर फूटे.
कहाँ तक रखते दोस्तों का हिसाब,
बहुत से मिले और बहुत से छूटे.
यारों, उसे भी कोई सज़ा मुक़र्रर हो,
जो अपना चैन अपने हाथों लूटे.
हमीं में शायद कोई कमी थी वरना,
सारा ज़माना किसी से किसलिए रूठे?
पाँवों तले जिनके हथेली बिछाई,
उन्होंने दिखाए हमें दूर से अँगूठे.
छूट सी गई है अब चैन की आदत,
काश, आज फिर कोई मुसीबत टूटे.
हमीं में शायद कोई कमी थी वरना,
जवाब देंहटाएंसारा ज़माना किसी से किसलिए रूठे?
मन की बात...सही में ऐसा लगता है बहुत बार...
पाँवों तले जिनके हथेली बिछाई,
उन्होंने दिखाए हमें दूर से अँगूठे.
जमाने का दोष है शायद ये...एहसान मानने के बजाय अँगूठे दिखाते हैं ।
बहुत ही लाजवाब
🙏🙏🙏🙏
वाह
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब !! अति सुन्दर सृजन ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर कृति
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर रविवार 04 फरवरी 2024 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
छूट सी गई है अब चैन की आदत,
जवाब देंहटाएंकाश, आज फिर कोई मुसीबत टूटे.
बेहतरीन..
सादर..
क्या बात है!! बहुत सुन्दर रचना के लिए बधाई और शुभकामनाएँ ओंकार जी 🙏
जवाब देंहटाएंवाह कितना कुछ छूट जाता है जीने में
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