नाड़े-सी लटकती सड़कें,
बदहवास दौड़ती गाड़ियाँ,
अकेले टिमटिमाते बल्ब.
झगड़ते कुत्तों के मुहल्ले,
बिलखती बिल्लियों की गलियाँ,
उचटती नींद से चिपके बदन.
ऊँघते-से ट्रैफिक सिग्नल,
अनमने-से चेक-पोस्ट,
कुर्सियों पर फैली वर्दियाँ।
पटरियों पर बिछे लोग,
सिरहाने रखी गठरियाँ,
गठरियों में बँधे घर.
खुलने को है सूरज की रक्तिम आँखें,
आने को है यंत्रणा का एक और दिन.
शहरों में निम्नवर्गीय परिवेश का मर्मस्पर्शी चित्रण ।बहुत सुन्दर सृजन ।
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" रविवार 24 दिसम्बर 2023 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंहृदयस्पर्शी सृजन ओंकार जी । सुबह होती है ,शाम होती है ,उम्र यूँ ही तमाम होती है ....
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंक्या खूब लिखा है, बहुत खूब। चंद शब्दों में कितना कुछ लिख दिया।
जवाब देंहटाएंलखनऊ शहर
रात की एक बजाती घड़ी
अगर घड़ी ने देखो
तो समय का पता न लगे
बिल्कुल वैसे जैसा की आपने लिखा
बदहवास दौड़ती गाडियां..
शायद ही किसी के लिए सूर्य की किरणें यंत्रणा का सबब बनती हों, यदि बनती हैं तो ईश्वर उन्हें सद् बुद्धि दे
जवाब देंहटाएंआपकी लेखनी बहुत ही शानदार है और एक बहुत ही अच्छा मेस्सगे आपने समाज में अपने शब्दों से दिया है , यकीनन आप पर विद्या की देवी सरस्वती की कृपा है .
जवाब देंहटाएंशह्र का हाल बाखूबी लिखा है ...
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